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________________ १५८ ****************** 44 प्रज्ञापना सूत्र 'अहोलोए पायालेसु" शब्द दिया है जिसका अर्थ है अधोलोक पाताल । तात्पर्य यह है कि लवण समुद्र दो लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। उसमें जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिका से लवण समुद्र में पिच्यानवै हजार योजन आगे जाने पर तथा इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप से पिच्यानवै हजार योजन इधर आने पर बीच में दस हजार योजन की चौड़ाई में चारों दिशाओं में चार महापाताल कलश आये हुए हैं। वे गोस्तनाकार रूप में एक लाख योजन नीचे गये हैं। उनके तीन विभाग किये गये हैं। तेतीस हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के त्रिभाग ( ३३३३३ - १/३) जितने मोटे हैं। सबसे नीचे के भाग में वायु है बीच के भाग में गोलाकार रूप होते हुए हवा और पानी मिले हुए हैं और ऊपर के तीसरे भाग में सिर्फ पानी है। इन चारों कलशों के नाम इस प्रकार हैं- वड़वा (वलया) मुख, केतु, यूप, ईश्वर। इन चार कलशों के प्रत्येक के बीच में छोटे पाताल कलशों की नव नव लड़ियाँ हैं यथा - २१५, २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, २२१, २२२ और २२३ । एक लड़ी के १९७१ छोटे पाताल कलशें हैं। चारों लड़ियों को मिलाने पर ७८८४ छोटे पाताल कलशें होते हैं। ये एक एक हजार योजन के उड़े (गहरे हैं। प्रत्येक के तीन-तीन भाग हैं। पहले भाग में वायु, दूसरे भाग में वायु और पानी मिश्रित और तीसरे भाग में केवल पानी है। इस प्रकार इन अधोलोक के कुल ७८८४+४=७८८८ पाताल कलशों में अप्काय का स्वस्थान है। भवनों में बारह देवलोकों की बावड़ियों में अप्काय है। अवट - कूप, कूआँ, तडाग - तालाब । नदी - गंगा सिन्धु आदि । हृद - द्रह - पद्मद्रह आदि, वापी चार कोनों वाली बावड़ी, पुष्करिणी-गोल बावड़ी अथवा जिनमें पद्मकमल उगे हुए हों, दीर्घिका - लम्बी बावड़ियाँ, गुंजालिका - टेड़ी मेड़ी बावड़ियाँ । सरोवर एक ही लाईन में हो तो सरपंक्ति और बहुत लाईनों में हो तो सरसर पंक्ति । स्वभाव निष्पन्न जगती के ऊपर होने वाले कूओं की पंक्तियाँ बिल पंक्तियाँ कहलाती है। पहाड़ों के अन्दर स्वभाव से नीचे से उबकने वाले पानी के स्रोतों को उज्झर कहते हैं और ऊपर से नीचे की तरफ सदा गिरते रहने वाले स्रोतों को निर्झर कहते हैं। बिना खोदे हुए थोड़े जल के आश्रय भूत भूमि अथवा पहाड़ों के प्रदेशों को छिल्लर कहते हैं। बिना खोदे हुए सरोवरों को पल्वल कहते हैं। वप्र का अर्थ है केदार-खेत अथवा क्यारियाँ इत्यादि सब जल के स्थानों में बादर अप्काय का स्वस्थान है। Jain Education International ************************ पाताल कलशों का वर्णन पृथ्वीकाय के वर्णन में और अप्काय के वर्णन में दोनों जगह आया है इसका कारण यह है कि पाताल कलशों की भित्तियाँ वज्र रत्न पृथ्वीकाय की है इसलिये भित्तियों की अपेक्षा उनका वर्णन पृथ्वीकाय में दिया गया है। सभी पाताल कलशों के तीन भागों में से दूसरे त्रिभाग में देशतः और तृतीय त्रिभाग में सम्पूर्ण रूप से जल है। इसलिये उस जल की अपेक्षा इन पाताल कलशों का वर्णन अप्काय में दिया गया है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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