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________________ १२० प्रज्ञापना सूत्र ऋद्धि प्राप्त हो वे जंघाचारण कहलाते हैं । जिन्हें उक्त लब्धि विद्या द्वारा प्राप्त हो वे विद्याचारण कहलाते हैं। जंघाचारण और विद्याचारण का विशेष वर्णन भगवती सूत्र शतक २० उद्देशा ९ में है । ६. विद्याधर - वैताढ्य पर्वत के अधिवासी प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के धारण करने वाले विशिष्ट शक्ति सम्पन्न व्यक्ति विद्याधर कहलाते हैं। ये आकाश में उड़ते हैं तथा अनेक चमत्कारिक कार्य करते हैं। यहाँ पर ऋद्धि प्राप्त आर्यों में ऋद्धि शब्द से आध्यात्मिक लब्धियाँ नहीं लेकर जन्म आदि से जीवन की विशिष्टताएं ली गई है जिनके कारण से वे साधारण मनुष्यों से अलग रूप में मालूम होते हैं। तीर्थंकरों के समवसरण में चारण मुनियों एवं विद्याधरों का प्रायः आना होता ही रहता । उनके सम्बन्ध में आम लोगों की जिज्ञासा को जानकर भगवान् ने इन्हें ऋद्धि प्राप्त आर्य के रूप में समझाया। इसलिए भी इनका ऋद्धि प्राप्त आर्य में समावेश किया गया है। प्रश्न- २८ लब्धियों को किस किस आर्य में समझना चाहिए ? उत्तर - तीर्थंकर आदि छह भेदों को तो ऋद्धि प्राप्त आर्य में बताया ही गया है। अवधिज्ञान, ऋजुमति, विपुलमति, केवली, गणधर, पूर्वधर, कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारिणी ये नौ लब्धियाँ ज्ञान आर्य में संभव है। संभिन्न श्रोत लब्धि में ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम होते हुए भी चारित्रिक साधना से प्राप्त होने से चारित्र आर्य में आना संभव है । अभव्य एवं मिथ्यात्वी को प्राप्त लब्धियाँ आर्य के भेदों में नहीं गिना जाना संभव है। इनके सिवाय एवं ऋद्धि आर्य के भेदों के सिवाय शेष लब्धियाँ साधुओं के चारित्र आर्य में होना संभव है । सम्यग्दृष्टि एवं देश विरति के भी यथा योग्य ज्ञान आर्य, दर्शन आर्य में होना समझा जाता है। से किं तं खेत्तारिया ? खेत्तारिया अद्ध छव्वीसइ विहांणा पण्णत्ता । तंजहा रायगिहमगह चंपा, अंगा तह तामलित्ति वंगा य । कंचणपुरं कलिंगा, वाणारसी चेव कासी च ॥१॥ साएय कोसला गयपुरं च कुरु सोरियं कुसट्टा य । कंपिल्लं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव ॥ २ ॥ बारवई सोरट्ठा, मिहिल विदेहा य वच्छ कोसंबी । दिपुरं संडिल्ला, भद्दिलपुरमेव मलया य॥ ३ ॥ वइराड वच्छ वरणा, अच्छा तह मत्तियावइ दसण्णा । सोत्तियवई य चेदी, वीयभयं सिंधुसोवीरा ॥ ४ ॥ महुरा य सूरसेणा, पावा भंगी य मास पुरिवट्टा । सावत्थी य कुणाला, कोडीवरिसं च लाढा य ॥ ५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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