SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८२ भवगती सूत्र-श. २४ उ १२ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति मुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीइं वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अन्भहियाइं-एवइयं० ३ । __ भावार्थ-२३-यदि वह बेइन्द्रिय, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में आता हो, तो उसके विषय में भी उपर्युक्त वर्णनानुसार है । भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तथा कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक २२००० वर्ष और उत्कृष्ट ४८ वर्ष अधिक ८८००० वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है । ३ । २४-सो चेव अप्पणा जहण्णकालट्टिईओ जाओ, तस्स वि एस चेव वत्तव्वया तिसु वि गमएसु । णवरं इमाई सत्त णाणत्ताई१ सरीरोगाहणा जहा पुढविकाइयाणं। २ णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्टी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी । ३ दो अण्णाणा णियम । ४ णो मणजोगी, णो वयजोगी, कायजोगी। ५ ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । ६ अज्झवसाणा अप्पसत्था । ७ अणुबंधो जहा ठिई। संवेहो तहेव आदिल्लेसु दोसु गमएसु, तइयगमए भवादेसो तहेव अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतो. मुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अठासीइं वाससहस्साई चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई ६। भावार्थ-२४-यदि वह बेइन्द्रिय, स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और वह पृथ्वीकायिक जीवों में आता हो, तो उसके तीनों गमकों में पूर्वोक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy