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________________ ३०१८ भगवती सूत्र-श. २४ उ. १ संज्ञी तिर्यंच का नरकोपपात वहां उत्पन्न नहीं होते, शेष सब यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये । संवेध जघन्य भव की अपेक्षा तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है १। ७८-सो चेव जहण्णकालट्टिईएसु उववण्णो० सच्चेव वत्तव्वया जाव 'भवादेसो' त्ति । कालादेसेणं जहणेणं० कालादेसो वि तहेव जाव चउहिं पुवकोडीहिं अभहियाई, एवइयं जाव करेजा २ । __भावार्थ-७८ प्रश्न-हे भगवन् ! वह संज्ञी तिर्यच पंचेंद्रिय जीव, सातवीं नरक में जघन्य स्थिति के नैरयिकों में कितने काल की स्थिति वाला होता है ? ७८ उत्तर-हे गौतम ! भवादेश तक पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार, जघन्य कालादेश भी उसी प्रकार यावत् चार पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है २ । ____७९-सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो० सच्चेव लद्धी जाव 'अणुबंधो' त्ति । भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई । कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहि अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई, उक्कोसेणं छावष्टुिं सागरो. वमाइं तिहिं पुनकोडीहिं अमहियाई, एवइयं जाव करेजा ३॥ ७९-उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, इत्यादि वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध तक पूर्ववत् । भव की अपेक्षा जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव तथा काल की अपेक्षा जघन्य दो अन्तर्मुहर्त अधिक सेतीस सागरोपम और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004091
Book TitleBhagvati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages566
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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