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________________ भगवती सूत्र. ८ उ. ९ शरीर बंध पूरी बने अन्यया अधूरी रह जाय । ७ भव- जिसमें जैमी शक्ति होती है, वह वैसी हवेली बनाता है, किन्तु मनुष्य के बिना हवेली नहीं बन सकती । ८ काल - तीमरे, चौथे और पांचवें आरे में हवेली बनती है । ये आठ बोल शरीर पर घटाये जाते हैं । १ वीर्य उन पुद्गलों को एकत्रित करना । २ द्रव्य शरीर बनने योग्य पुद्गल । ३ सयोग - मनोयोग के परिणाम । ४ योग- काया काव्यार । ५ कर्म - जिस जीव ने जैसे शुभाशुभ कर्म किये हैं, उसी के अनुसार शुभाशुभ शरीर बनता है । ६ आयुष्य - यदि आयुष्य लम्बा हो, तो शरीर पूरा बनता है, नहीं तो अपर्याप्त अवस्था में ही मरण हो जाता हैं । ७ भव-तियंच और मनुष्य के बिना औदारिक शरीर नहीं बनता। काल-काल के अनुसार जीवों के शरीर की अवगाहना होती है । इस प्रकार औदारिक शरीर का बन्ध उपरोक्त आठ कारणों से होता है । औदारिक शरीर का वध, देश-वन्ध भी होता है और सर्व-बन्ध भी होता है । जिम प्रकार घृतादि से भरी हुई और अग्नि से तपी हुई कड़ाही में जब अपूप ( मालपुआ ) डाला जाता है, तो डालते हो प्रथम समय में वह घृतादि को केवल खींचता है । उस के बाद दूसरे समयों में घृतादि की ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है, उसी प्रकार जीव जब पूर्व शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर को धारण करता है, तत्र प्रथम समय में उत्पत्ति स्थान में रहे हुए शरीर योग्य पुद्गलों को केवल ग्रहण करता है, इसलिए यह सर्व-बन्ध है । उसके बाद द्वितीयादि समयों में शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है, इसलिए यह देश बन्ध है । इसलिये औदारिक शरीर का सर्व-बन्ध भी होता है और देशबन्ध भी होता है । १४९५ ऊपर मालपुए का दृष्टांत देकर यह बताया है कि सर्वबन्ध एक समय का होता है। जब वायुकायिक जीव अथवा मनुष्यादि वैक्रिय शरीर करके उसे छोड़ देता है, तब छोड़ने के वाद औदारिक शरीर का देशबंध करता है। उसके पश्चात् दूसरे समय में यदि उसका मरण हो जाय तब देशबंध जघन्य एक समय का होता है । औदारिक शरीरधारी जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पत्यापम की होती है । उसमें से प्रथम समय में जीव सर्वबन्धक रहता है, उसके बाद एक समय कम तीन पत्योपम तक देशबंधक रहता है । . एकेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति २२ हजार वर्ष की है । उसमें प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है और उसके बाद एक समय कम २२ हजार वर्ष तक देशबंधक रहता है । पृथ्वी जीव तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न हुआ, तो वह तीसरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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