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________________ १०९८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ अंगारादि दोष . ईन्धन, अंगारा (कोयला) हो जाता है, उसी प्रकार उक्त रागरूपी अग्नि से, चारित्ररूपी ईन्धन जल कर कोयले की तरह हो जाता है अर्थात् राग से चारित्र का नाश हो जाता है। (२) धूम-विरस आहार करते हुए आहार की या दाता की द्वेषवश निन्दा करना अर्थात् कुराहना करते हुए आहार करना-'धूम दोष' है । यह द्वेषभाव, साधु के चारित्र को जलाकर सधूम काष्ठ की तरह कलुषित करने वाला है। (३) संयोजना-उत्कर्षता पैदा करके के लिए, एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ संयोग करना-'संयोजना' दोष है। जैसे रस लोलुपता के कारण दूध, शक्कर, घी आदि द्रव्यों को स्वाद के लिये मिलाना । (४) अप्रमाण-शास्त्र में वर्णित प्रमाण से अधिक आहार करना-'अप्रमाण' दोष है। (५) अकारण-साधु को छह कारणों से आहार करने की आज्ञा है । उन छह कारणों के सिवाय बल-वोर्यादि की वृद्धि के लिए आहार करना-'अकारण' दोष है।। . यहां तीन दोषों का निर्देश किया गया है । 'अकारण' दोष का समावेश इन्हीं में . कर दिया गया है । अप्रमाण दोष का वर्णन आग दिया जायगा। ___इन पांच दोषों को टालकर साधु को आहार करना चाहिए । आहार का प्रमाण बतलाने के लिए 'कुक्कुटी अण्डक प्रमाण मात्र' शब्द दिया है । टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है -कुक्कुटी (मुर्गी) के अण्डक प्रमाण का एक कवल समझना चाहिए। ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण, पुरुष का आहार माना गया है । अथवा-कुटो का अर्थ है-झोंपड़ी। जीवरूप पक्षी के लिए आश्रयरूप होने से यह शरीर उसके लिए झोंपड़ी है । यह शरीररूपी कुटी अशुचिप्रायः है. इसलिए यह 'कुकुटी' कहलाता है । इस कुकुटी का उदरपूरक (मुखमुख में सुगमता पूर्वक जाने वाले) आहार को 'कुकुटी अण्डक' कहते हैं। इसका प्रमाण 'कुकुटी अण्डक प्रमाण' कहलाता है । इसका तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का जितना आहार होता है, उसके बत्तीसवें भाग को 'कुकुटी अण्डक प्रमाण' कहते हैं । इस व्याख्यानुमार यह समझना चाहिए कि यदि कोई पुरुष अपने हाथ से चौसठ कवल (ग्रास) भी ले और उतने आहार से उसके उदर (पेट) की पूर्ति होती है, तो उतना आहार उसके लिए 'प्रमाण प्राप्त' आहार कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का जितना आहार है अर्थात् जितने आहार से उसकी उदरपूर्ति होती है. उस आहार को वह अपने हाथ द्वारा कितने ही ग्रास से मुख में क्यों न रखे, किन्तु शास्त्रीय भाषा में वह आहार 'बत्तीस कवल प्रमाण' कहलाता है । उस आहार का चतुर्थांश (चौथा हिस्सा) खाना 'अल्पाहार' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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