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________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ क्रियाएँ कितनी लगती है ? चाहिये । परन्तु उसमें पांचवीं क्रिया का कथन नहीं करना चाहिये । शेष सभी पूर्व की तरह कहना चाहिये। जिस प्रकार वैक्रिय शरीर का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक, तेजस् और कार्मण शरीर का भी कथन करना चाहिये । प्रत्येक के चार चार दण्डक कहना चाहिये। ' यावत् ( प्रश्न ) हे भगवन् ! वैमानिक देव, कार्मण शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? (उत्तर) हे गौतम ! तीन क्रिया वाले भी और चार क्रिया वाले भी होते हैं ।' यहां तक कहना चाहिये । १४१२ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । विवेचन - कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा अथवा दुष्ट व्यापार विशेष को 'क्रिया' कहते हैं । अथवा कर्मबन्ध के कारणभूत कायिकी आदि पाँच पाँच करके पच्चीस क्रियाएँ हैं । वे जैनागमों में 'क्रिया' शब्द से कही गई हैं । यहाँ कायिकी आदि पाँच क्रियाओं का कथन है । उनका स्वरूप इस प्रकार है १ कायिकी - काया से होने वाली क्रिया 'कायिकी क्रिया' कहलाती है । २ अधिकरणिकी - जिस अनुष्ठान विशेष से अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा, नरकादि गति का अधिकारी होता है, वह 'अधिकरण' कहलाता है । उस अधिकरण से होने वाली क्रिया 'आधिकरणिकी' कहलाती है । ३ प्राद्वेषिकी - कर्मबंध के कारणभूत जीव के मत्सर भाव अर्थात् ईर्षा रूप अकुशल परिणाम को 'प्रद्वेष' कहते हैं । प्रद्वष से होने वाली क्रिया प्राद्वषिकी क्रिया कहलाती है । ४ पारितानिकी - ताड़नादि से दुःख देना अर्थात् पीड़ा पहुँचाना 'परिताप' है । इसे होने वाली क्रिया 'पारितापनिकी' कहलाती है । ५ प्राणातिपातिकी - इन्द्रिय आदि दस प्राण हैं । उनके अतिपात ( विनाश ) से लगने वाली क्रिया 'प्राणातिपातिकी' क्रिया है । ये पांच क्रियाएँ हैं । जब एक जीव, अन्य पृथ्वीकायिकादि जीव के शरीर की अपेक्षा काया का व्यापार करता है, तब उसके कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी ये तीन क्रियाएँ लगती हैं। क्योंकि सराग जीव को कायिकी क्रिया के सद्भाव में आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है । पारितापनिकी और प्राणातिपातिको क्रिया में भजना (विकल्प) है । क्योंकि जीव, जब दूसरे जीव को परिताप उत्पन्न करता है, तब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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