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________________ १३६४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान-अज्ञान के पर्याय शानी जीवों के अल्प-बहुत्व में मनःपर्ययज्ञानी सबसे थोड़े बतलाये गये हैं। इसका कारण यह है कि मनःपर्यय ज्ञान, संयत जीवों के ही होता है । अवधिज्ञानी जीव चारों गति में पाये जाते हैं । इसलिये वे उनसे असंख्यात गुण हैं। उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं । इसका कारण यह है कि अवधि आदि ज्ञान से रहित होने पर भी कितने ही पंचेन्द्रिय जीव और कितने ही विकलेन्द्रिय जीव (जिन्हें सास्वादन सम्यगदर्शन हो) भी आमिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर साहचर्य होने से ये दोनों तुल्य हैं । इन सभी से सिद्ध अनन्त गुण होने से केवलज्ञानी जीव अनन्त गुण हैं । तीन अज्ञान का अल्प-बहुत्व-सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं । उन से मतिअज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी अनन्त गुण हैं और ये दोनों परस्पर तुल्य हैं । ____ अज्ञानी जीवों की अल्प-बहुत्व में विभंगज्ञानी सबसे थोड़े बतलाये गये हैं । क्योंकि विभंगज्ञान पंचेन्द्रिय जीवों को हा होता है और वे सबसे थोड़े हैं। उनसे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनन्त गुण बतलाये हैं । इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय जीव भी मतिअज्ञानी श्रुत अज्ञानी होते हैं और वे अनन्न हैं । ये परस्पर तुल्य हैं । क्योंकि मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान का परस्पर साहचर्य है। ज्ञानी और अज्ञानी जीवों का सम्मिलित अल्प-बहुत्व-सवसे थोड़े मनःपर्ययज्ञानी हैं । उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुण हैं । उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और वे परस्पर तुल्य हैं । उनसे विभंगज्ञानी असंख्यात गुण हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि देव और नारक जीवों से मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुण हैं । उनसे केवलज्ञानी अनन्त गुण हैं । क्योंकि एकेंद्रिय जीवों के सिवाय शेष सभी जीवों से सिद्ध अनन्त गुण हैं। उनसे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनन्त गुण हैं और वे परस्पर तुल्य हैं । क्योंकि साधा. रण वनस्पतिकायिक जीव भी मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी होते हैं और वे सिद्धों से अनन्त गुण हैं। पर्यायों का अल्प-बहुत्व-भिन्न-भिन्न अवस्थाओ के भेदों को 'पर्याय' कहते हैं। उसके दो भेद हैं । यथा-स्वपर्याप और पर-पर्याय । क्षयोपशम की विचित्रता से मतिज्ञान के अवग्रहादिक के अनन्त भेद होते है । वे स्वपर्याय कहलाते हैं । अथवा मतिज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त हैं और ज्ञेय के भेद से ज्ञान के भी अनन्त भेद हो जाते हैं । इस प्रकार मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं अथवा केवलज्ञान द्वारा मतिज्ञान के अंश किये जायें, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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