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________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. ५ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप . १२३९ त्तरोववाइय० जाव परिणया, जाव सवसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदिय जाव परिणया । (द. १) कठिन शब्दार्थ-गेवेज्ज-ग्रेवेयक, कप्पोवगा-कल्पोत्पन्न (जहां इन्द्रादि अधिकारी और छोटे बड़े, ऊँच, नीच आदि का व्यवहार है, जहां अधिकारी व अधीनस्थ हैं, और जिनके पारस्परिक व्यवहार नियमानुसार होने हैं) कप्पातीत-कल्पोत्पन्न देवों जैसे व्यवहार से सर्वथा मुक्त, सभी देव समान रूप से इन्द्र की तरह हैं, हेटिमहेट्ठिम-नीचे की त्रिक में नीचे, उरिमउवरिम-ऊपर की त्रिक में ऊपर, अणुत्तरोववाइय-सर्वोत्तम (जिससे उत्तम कोई स्थान नहीं है-ऐसे) देवलोक में उत्पन्न । ___ भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! वे चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा-भवनवासी देव पंचेंद्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् वैमानिक देव-पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! भवनवासी देव-पंचेंद्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वे दस प्रकार के कहे गये हैं। यथा-असुरकुमारदेव प्रयोग परिणत पुद्गल यावत् स्तनितकुमार प्रयोग परिणत पुद्गल। इसी प्रकार इसी अभिलाप द्वारा आठ प्रकार के वाणव्यन्तर कहने चाहिये । यथा-पिशाच यावत् गन्धर्व । इसी प्रकार इसी अमिलाप द्वारा ज्योतिषी देवों के पाँच भेद कहने चाहिये। यथा-चन्द्र विमान ज्योतिष्क देव यावत् तारा-विमान ज्योतिष्क देव । वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं। यया-कल्पोपपन्न वैमानिक देव और कल्पातीत वैमानिक देव । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के बारह भेद कहे गये हैं । यथासौधर्म-कल्पोपपन्नक यावत अच्यत-कल्पोपपन्नक । कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-प्रवेयक-कल्पातीत वैमानिक और अनुत्तरोपपातिक कल्पा. तीत वैमानिक देव । ग्रेवेयक कल्पातीत वैमानिक देवों के नौ भेद कहे गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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