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________________ ९२६ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ९ पाश्र्वापत्य स्थविर और श्रीमहावीर शरीरों की अपेक्षा तथा सन्तति की अपेक्षा जीव अनन्त हैं । वे अनन्त पर्याय का समूह रूप होने से तथा असंख्येय प्रदेशों का पिण्ड रूप होने से 'घन' कहलाते हैं । इस प्रकार के जीव 'जीवन' कहलाते हैं, ( और प्रत्येक शरीर वाले भूत भविष्यत्काल की सन्तति की अपेक्षा रहित होने से पूर्वोक्त रूप से 'परित जीवधन' कहलाते हैं ।) उपर्युक्त प्रश्न में जो अनन्त सत्रि दिवस का कथन किया गया है, उस का उत्तर इस कथन द्वारा दिया गया । क्योंकि अनन्त और परित्त जीवों के सम्बन्ध से काल विशेष भी अनन्त और परित्त कहलाता है । इसलिये अनन्त जीवों के सम्बन्ध से काल अनन्त है और परित्त जीवों के सम्बन्ध से काल परित है । इन दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं हैं अब स्वरूप से फिर लोक का ही कथन किया जाता है। जहाँ जीवधन उत्पन्न हो कर नष्ट होते हैं, वह 'लोक' कहलाता है । वह लोक, भवन (सत्ता) धर्म के सम्बन्ध से 'सद्भूत' लोक कहलाता है । शङ्का - जिस प्रकार नैयायिकों के मत में आकाश, अनुत्पत्तिक (उत्पत्ति रहित ) है, तो क्या यह लोक भी अनुत्पत्तिक है ? समाधान- - लोक ' उत्पन्न' हैं । जिस प्रकार विवक्षित घटाभाव (घट प्रध्वंसाभाव) उत्पन्न है और अनश्वर है, उसी प्रकार उत्पन्न पदार्थ भी अनश्वर होता है। इसलिये कहा गया है कि लोक 'विगत' (नाशशील ) है । नाशशील पदार्थ ऐसा भी होता है कि उसका निरन्वय नाश हो जाता है, इसलिये कहा गया है कि लोक 'परिणामी ' है । अर्थात् अन्य अनेक पर्यायों को प्राप्त है । परन्तु उसका निरन्वय नाश ( समूल नाश - सम्बन्ध रहित नाश) नहीं हुआ है यह लोक, अजीवों के द्वारा निश्चित होता है । अर्थात् सत्ता को धारण करने वाले नाश को प्राप्त होने वाले और परिणाम को प्राप्त होने वाले तथा जो लोक से - अनन्य भूत (अभिन्न ) है ऐसे जीव, पुद्गल आदि पदार्थों से निश्चित होता है । यह लोक 'भूतादि धर्म वाला है, ' इस प्रकार प्रकर्ष रूप से निश्चित होता है । इसलिये उसका 'लोक' यह नाम यथार्थ है । क्योंकि जो प्रमाण द्वारा विलोकित किया जाय वह 'लोक' शब्द का वाच्य हो सकता है । इस प्रकार लोक का स्वरूप कहने वाले पार्श्वनाथ भगवान् के वचन का स्मरण कराकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने वचन का समर्थन किया है । Jain Education International श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उपर्युक्त वचनों को सुनकर उन स्थविर भगवंतों को यह निश्चय हो गया कि ये सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । तब उन्होंने भगवान् के पास चतुर्याम धर्म से प्रतिक्रमण पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार किया। फिर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । उनमें से कितने ही स्थविर, सभी कर्मों For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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