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________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया रहितता होने से और द्रव्य कर्म का सद्भाव होने से 'तीसरे समय में कर्म निर्जीर्ण हुआ' - ऐसा व्यवहार होता है और तत्पश्चात् चतुर्थ आदि समयों में 'कर्म अकर्म हुआ' - ऐसा व्यवहार होता है । ६६४ एवामेव मंडियपुत्ता ! अत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियस्स जाव - गुत्तबं भयारिस्स, आउतं गच्छमाणस्स, चिट्ठमाणस्स, णिसीयमाणस्स, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थ- पडिग्गह- कंबल-पाय-. पुंछणं गेहमाणस्स, णिक्खिवमाणस्स, जाव - चक्खुप म्हणिवायमवि वेमाया सुहुमा ईरियावहिया किरिया कज्जइ, सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, बिइयसमयवेइया, तइयसमयणिज्जरिया, सा बद्धा, पुट्ठा, उदीरिया, वेइया, णिज्जिण्णा, सेयकाले अकम्मं वा वि भवइ । से तेणट्टेणं मंडियपुत्ता ! एवं बुचइ - जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयह, जाव - अंते अंतकिरिया भवः । कठिन शब्दार्थ - अत्तत्ता संवुडस्स - आत्मा में ही संवृत हुए, आउ-उपयोग युक्त, चिट्ठमाणस्स - ठहरता हुआ, णिसीयमाणस्स -- बैठता हुआ, तुयट्टमाणस्स - सोता हुआ, चक्खुम्हणिवायमवि - आँखों की पलकों को टमकाते, वेमाया-विमात्रा से । भावार्थ - हे मण्डितपुत्र ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्म संवृत, ईर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित, मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचारी तथा उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, सावधानी पूर्वक ठहरने वाले, सावधानता सहित बैठनेवाले, सावधानतापूर्वक सोनेवाले तथा सावधानतापूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि को उठानेवाले और रखनेवाले अनगार को अक्षिनिमेष ( आँख की पलक टमकारने) मात्र में विमात्रापूर्वक सूक्ष्म afrat क्रिया लगती है । वह प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट, दूसरे समय में वेदित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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