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________________ मीमांसादर्शन का विशेषार्थ (प्रमाणम्) ६०१/१२२४ बधान'-यहाँ पर प्रत्यक्षतः दृश्यमान भागते हुए अश्व का शाब्द बोध में अन्वय न होने का कारण अश्व में शब्दबोधितत्व न होना है । फलतः यह नियम सिद्ध हो जाता है कि, शब्दोपस्थापित पदार्थों का ही अन्वय होता है । आचार्य प्रभाकर तो बुद्धिकृत सन्निधिमात्र को ही सनिधि मानते हैं, शाब्द सन्निधि को नहीं, अतः वे भी 'गां बधान'-यहाँ पर प्रत्यक्षोपस्थापित अश्व का ही अन्वय निवारण में समर्थ नहीं हो सकते, अतः उन्हें भी विवश होकर 'शब्दोपस्थापित अर्थो का ही अन्वय होता है'-ऐसा नियम मानना ही पड़ेगा, यह कहा जा चुका है । 'अश्व में वाक्य का तात्पर्य न होने कारण ही उसका अनन्वय होता है, शब्दोपस्थापित्वाभाव के कारण नहीं'-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि तब तो 'अग्निना सिञ्चति'-इत्यादि स्थलों पर भी तात्पर्याभाव-प्रयुक्त अनन्वय दिखाकर योग्यता को भी तिलाञ्जलि दी जा सकती है । अतः अन्वय-बोध में तात्पर्य कहीं भी साक्षात् हेतु नहीं होता, इतर सामग्री के होने पर नियमनार्थ तात्पर्य भी अपेक्षित होता है। इस प्रकार अन्य उपाय न होने के कारण आचार्य प्रभाकर को भी यह नियम मानना पडता है कि 'शब्दोपस्थापित पदार्थों का ही अन्वयबोध होता है । इसका लाभ हमें (भाट्ट गणों को) दो स्थलों पर मिलता है, उनमें एक स्थल की चर्चा हो चुकी है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणान्तरों से उपस्थापित अश्वादि पदार्थों का अन्वय-प्रसक्त नहीं और दूसरा स्थल है-'द्वारम्' इतना मात्र कह देने पर अर्थाध्याहार से काम नहीं चल सकता, अतः ‘आव्रियताम्'-इस शब्द का अध्याहार आवश्यक हो जाता है, क्योंकि शब्दोपस्थापित पदार्थों में ही अन्वय की योग्यता आती है-यह हमारा सिद्धान्त अक्षुण्ण है। गुरुस्त्वावरणार्थस्य तत्राध्याहारमिच्छति । बुद्धिसन्निधिमात्रेणाप्यन्वेतीति दुराशयः ।।१०० ।। तत्र यद्यवलिप्तोऽयं गुरुर्नाद्यैव शिक्ष्यते । अर्थाध्याहतिरेवेति तर्हि गर्जिष्यति ध्रुवम् ।।१०१।। एवं व्यभिचारभये गलिते वाक्यार्थनिर्णये जाते । पुनरभिधत्ते शब्दोऽप्यनुवादतयेति तस्य राद्धान्तः ।।१०२।। व्यभिचारविशङ्कामप्यनादृत्येन्द्रियादिवत् । स्वमर्थमभिधातुं किं समर्था न पदावली ।।१०३।। तात्पर्यमपि सुज्ञानं स्वतो ज्ञानानुमां विना । यथा वेदे यथा चान्येष्वनालोचितकर्तृषु ।।१०४ ।। वक्तृज्ञानामुमानान्तं यदि च प्रतिपाल्यते । तर्हि तस्याप्यशक्यत्वाद्भग्नाश: किं करिष्यसि ।।१०५।। आचार्य प्रभाकर का कहना है कि, वहाँ 'आव्रियताम्'-इस पद के अध्याहार की आवश्यकता नहीं, केवल आवरणरूप (बन्द करना) अर्थ का ही अध्याहार हो जाने से बौद्ध सन्निधि का लाभ हो जाता है । विद्वानों से हमारा (नारायण भट्ट का) अनुरोध है कि, प्रभाकर गुरु को ठीक से शिक्षा दे देनी चाहिए (उनके मत का निराकरण कर देना चाहिए) नहीं तो वह यही बोलता रहेगा कि अर्थाध्याहार ही वहाँ पर्याप्त है । इस प्रकार वाक्यार्थ-ज्ञान का क्रम कह दिया गया, असन्निकृष्टार्थविषयक वाक्यार्थ-ज्ञान शाब्द प्रमाण है-यह भी कहा गया, इसे ही आगम प्रमाण कहा जाता है । 'असनिकृष्ट'-पद के द्वारा अनुवादक और बाधितार्थक वाक्यों का अप्रामाण्य सूचित किया गया । उक्त शब्द ज्ञान दो प्रकार का होता है-(१) पौरुषेय और (२) अपौरुषेय । उनमें आप्त-वचन पौरुषेय होने के कारण उससे जनित शाब्द ज्ञान को पौरुषेय और अपौरुषेय वेद-वचनों से उत्पादित शाब्द ज्ञान को अपौरुषेय कहा जाता है। प्रभाकर मत-आचार्य प्रभाकर का कहना है कि, वैदिक ही शाब्दप्रमाण होता है, पौरुषेय नहीं, क्योंकि पुरुष-वचन केवल वक्ता पुरुष के अभिप्राय का अनुमान मात्र कराते हैं, स्वयं वाक्यार्थ का बोध नहीं कराते । उसका कारण यह है कि, पुरुष-वचनों को बोधिका शक्ति व्यभिचार-शङ्का से आक्रान्त होने के कारण कुण्ठित हो जाती है । यद्यपि व्युत्पत्ति के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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