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________________ सप्तभंगी ५२५/११४८ सप्तभंगी में विशेष : (काशीस्थित न्यायदर्शन के प्रकांड पंडित प्रवरो के द्वारा न्यायाचार्य - न्यायविशारद उपाधि से विभूषित पू. महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजा द्वारा विरचित 'द्रव्य-गुण पर्याय रास' में सप्तभंगी का विस्तृत स्वरूप बताया हैं, इसमें से आवश्यक अंशो को लेकर यहाँ प्रस्तुत करते है - सप्तभंगी का उद्भव : क्षेत्र-काल भावादिक योगई, थाइं भंगनी कोडी रे । संखेवई ए ठामि कहिइं, सप्तभंगनी जोडी रे ।।४-९।। (12) गाथार्थ : क्षेत्र-काल और भावादिक की अपेक्षा से भांगो की कोडी होती हैं (करोडों भांगे होते है।) फिर भी संक्षेप से इस स्थान में सात भांगे की जोडी (सप्तभंगी) कही जाती हैं ।।४-९।। कहने का मतलब यह है कि, भेदाभेद और उसकी अर्पणा-अनर्पणा आदि समजने-समजाने के लिए द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव समजना अत्यंत आवश्यक हैं । ये सभी विवक्षाओं को समझकर जो “भेदाभेद" समजा जाये तो, यह भेदाभेद आदि समजना कठीन होने पर भी सरल हो जाता हैं और वह समजा हुआ विषय कदापि खिसकता नहीं हैं । स्वद्रव्यादि - परद्रव्यादि की विवक्षा - इस संसार में चेतन और अचेतन ऐसे मुख्यतः दो पदार्थ हैं । अचेतन पदार्थ के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ऐसे पांच आंतर विभाग है । जिससे कुल मिलाकर षड्द्रव्यात्मक यह लोक है। ये छ: में चैतन्य गुणवाला द्रव्य एक ही हैं और वह जीव हैं । शेष पांचों द्रव्य चैतन्य गुण से रहित हैं । ये छ: द्रव्य परस्पर ऐसे जुड़े हुए है कि उसमें से १ द्रव्य को समुचित जानना हो तो बाकी के द्रव्यो को भी जानने पडते है । प्रत्यके द्रव्यो को अपनी अपेक्षा से "स्व" कहा जाता हैं और परद्रव्य की अपेक्षा से "पर" कहा जाता हैं । जैसे कि, "मिट्टी द्रव्य का बना हुआ घट, मिट्टी की अपेक्षा से "स्वद्रव्य" हैं और सुवर्णादि अन्य द्रव्य उस मिट्टी के घट के लिए "परद्रव्य" हैं । उसी तरह से जो द्रव्य जो आकाश क्षेत्र में व्याप करके रहा जाता हैं, वह आकाश क्षेत्र उस द्रव्य के लिए "स्वक्षेत्र" कहा जाता है और बाकी का आकाश क्षेत्र उस विवक्षित द्रव्य के लिए "परक्षेत्र" कहा जाता हैं । तथा जो द्रव्य जिस काल में विद्यमान हैं, वह काल उस द्रव्य के लिए "स्वकाल" कहा जाता हैं और जो द्रव्य जिस काल में अविद्यमान है, वह द्रव्य के लिए वह काल “परकाल" कहा जाता हैं । उसी तरह से जो द्रव्य जिस स्वरूप में वर्तित होता हैं, वह उसका "स्वभाव" कहा जाता हैं और जो द्रव्य जिस स्वरूप से वर्तित नहीं होता हैं, वह स्वरूप उस द्रव्य के लिए "परभाव" कहा जाता हैं। ___ सर्व पदार्थो का स्वद्रव्य - क्षेत्र - काल - भावादिक रूप से भी विचार किया जाता है और परद्रव्य - क्षेत्र - काल - भावादिक रूप से भी विचार किया जाता हैं । कोई भी एक वस्तु को स्वद्रव्यादि से जब सोचा जाता हैं, तब वह अस्ति स्वरूप से (होने रुप) भासित होता हैं और उसी वस्तु को परद्रव्यादि से जब सोचा जाता है, तब वह नास्ति स्वरूप से 12.टबा-द्रव्यादिक विशेषणइं भंग थाइं, तिम-क्षेत्रादिक विशेषणइं पणि अनेक भंग थाई । तथा द्रव्यघट: स्व करी विवक्षिइं, तिवारहं क्षेत्रादिक घट पर थाइ, इम प्रत्येकई - सप्तभंगी पणि कोडीगमई नीपजई, तथापि लोक प्रसिद्ध जे कंबु - ग्रीवादि पर्यायोपेतघट छइ, तेहनई ज - स्वत्रेवडीनई स्वरूपई - अस्तित्व, पररुपई - नास्तित्व इम लेइ सप्तभंगी देखाडिई, तथाहि : १. स्वद्रव्य क्षेत्र - काल - भावापेक्षाई घट छइ ज । २. परद्रव्य - क्षेत्र - काल - भावापेक्षाई नथी ज । ३. एक वारई - उभय विवक्षाई अवक्तव्य ज, २ पर्याय एक शब्द इ मुख्यरुपइ न कहवाइ ज । ४. एक अंश स्वरूपइ, एक अंश पररुपइ, तिवारई “छई नई नथी" ५. एक अंश स्वरुपइ, एक अंश-युगपत्-उभयरुपई विवक्षीइं, ति वारइ - "छइ, अनई अवाच्यः" ६. एक अंश पररुपई, एक अंश युगपत् उभयरुपई विवक्षीइं ति वारई - “नथी नई अवाच्य" ७. एक अंश स्वरुपई, एक (अंश) पररुपई, एक (अंश) युगपत् विवक्षीइ। तिवारइ “छइ, नथी, नई अवाच्यः" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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