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________________ ४१२/१०३५ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट-१, जैनदर्शन का विशेषार्थ इत्यादि बनाते हुए प्रसंग से मारे जाते हैं । यदि उद्देश से मारा जाये तो यह क्रिया प्राणातिपाति की हो जाती हैं । (यह क्रिया प्रमादवशात् होने से छठ्ठे गुणस्थानक तक हैं ।) ७. परिग्रह अर्थात् धन-धान्य आदिक का जो संग्रह अथवा समत्वभाव उससे उत्पन्न हुए पारिग्रहिकी क्रिया, वह दो प्रकार की हैं । वहाँ पशु, दास आदि सजीव के संग्रह से जीवपारिग्रहिकी और धन-धान्यादि अजीव के संग्रह से अजीवपारिग्रहिकी क्रिया कही जाती हैं । (यह क्रिया परिग्रहवाले को होने से पाँचवे गुणस्थानक तक हैं ।) ८. माया अर्थात् छल-प्रपंच उसके प्रत्यय से अर्थात् हेतु से उत्पन्न हुई वह मायाप्रत्ययिकी क्रिया दो प्रकार की 1 वहाँ अपने हृदय में दुष्ट भाव होने पर भी शुद्धभाव बताना वह आत्मभाववञ्चन माया प्रत्ययिकी और मिथ्या साक्षी, गलत दस्तावेज आदि करना वह परभाववञ्चन माया प्रत्ययिकी क्रिया कही जाती हैं ( यह क्रिया सातवें गुणस्थानक तक है ।) (35) 1 ९. मिथ्यात्वदर्शन अर्थात् तत्त्व की जो विपरीत प्रतिपत्ति (श्रद्धा), उस निमित्त से होती जो क्रिया (अर्थात् विपरीत श्रद्धारूप जो क्रिया) वह मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया दो प्रकार से हैं । वहाँ कोई भी पदार्थ का स्वरूप सर्वज्ञने कहे हुए स्वरूप से न्यून वा अधिक माने वह न्यूनातिरिक्त मिथ्यात्वदर्शन । और सर्वथा न माने तो तद्व्यतिरिक्त मिथ्या० क्रिया कही जाती हैं (यह क्रिया सम्यक्त्व मोहनीय से अतिरिक्त यथायोग्य २ दर्शनमोहनीय के उदय से हैं । इसलिए तीसरे गुणस्थानक तक होती है ।) १०. हेय वस्तु के प्रत्याख्यान (- त्याग के नियम) बिना जो क्रिया हो वह अप्रत्याख्यानिकी क्रिया दो प्रकार से हैं । वहाँ सजीव का प्रत्याख्यान न हो तो सजीव अप्रत्याख्यानिकी और अजीव का प्रत्याख्यान न हो तो अजीव अप्रत्याख्यानिकी क्रिया जानना । यहाँ जो पदार्थ किसी भी समय उपयोग में न आये, ऐसे पदार्थ का भी यदि प्रत्याख्यान न हो तो वह संबंधि कर्म का आश्रव अवश्य होता हैं और उस कारण से ही स्वयंभूरमण समुद्र के मत्स्यभक्षण का उ समुद्र के जलपान का, पूर्वभव में छोडे हुए शरीरो से होती हिंसा का, पूर्वभव में छोडे हुए शस्त्रो से होती हिंसा का और पूर्वभव में संग्रह किये हुए परिग्रह के ममत्वभाव का कर्म आश्रव इस भव में भी जीव को होता हैं, इसलिए उपयोगवंत जीव एक समय भी अप्रत्याख्यानी न रहे और मृत्यु के समय अपने शरीर को, परिग्रह को और हिंसा के साधनों को छोड दे (त्याग करे।) यहाँ विशेष जानना यह हैं कि, पूर्वभव के शरीरादिक से होती हिंसा का पापआश्रव जैसे इस भव में भी आता हैं, वैसे उन शरीरों से होती धर्मक्रिया का पुण्य आश्रव इस भव में नहीं आयेगा । कारण जीव का अनादि स्वभाव पाप प्रवृत्तिवाला है, वही कारण है । (यह क्रिया अविरत जीवों को होने से चौथे * गुणस्थानक तक है । १९. जीव अथवा अजीव को रागादिक से देखने से जो क्रिया लगे वह दृष्टिकी क्रिया भी जीवदृष्टिकी और अजीवदृष्टिकी ऐसे २ प्रकार से हैं । (यह क्रिया सकषायी चक्षुरिन्द्रियवंत को होने से त्रीन्द्रिय तक के जीवो को न हो और पंचेन्द्रिय को छठें अथवा १० वें गुणस्थानक तक होती हैं ।) १२. जीव अथवा अजीव को रागादिक से स्पर्श करना वह स्पृष्टिकी क्रिया भी जीव स्पृष्टीकी और अजीव स्पृष्टिकी ऐसे दो प्रकार से हैं । अथवा यहाँ १२वीं पृष्टिकी अर्थात् प्राश्निकी क्रिया भी मानी जाती है । तो जीव अथवा 35. काइय अहिगरणिया, पाउसिया पारितावणी किरिया पाणाइवायारंभिय, परिग्गहिआ मायवत्ती अ ।। २२ ।। ( नव. प्र. ) X यद्यपि पाँचवे गुणस्थानक पर भी पृथ्वीकायादि स्थावरो का अप्रत्याख्यान है तो भी सापेक्ष वृत्तियुक्त और अहिंसा परिणामवाला होने से उस दया का परिणाम प्रत्याख्यान समान कहा हैं, इसलिए पाँचवें गुणस्थानक पर अप्रत्याख्यान क्रिया की विवक्षा नहीं है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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