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________________ ३९२/१०१५ षड्. समु. भाग-२, परिशिष्ट -१, जैनदर्शन का विशेषार्थ वा अधिक प्रमाण में होता ही हैं और वह जीव द्रव्य में ही होता हैं, परन्तु अन्य द्रव्य में नहीं, इसलिए तप यह भी जीव का लक्षण हैं । तापयति अष्टप्रकारं कर्म इति तपः आठ प्रकार के कर्म को जो तपायें (अर्थात् जलायें) उसे तप क जाता हैं । अथवा ताप्यन्ते रसादिधातवः कर्माणि वा अनेनेति तपः- ( रस- अस्थि मज्जा मांस - रुधिर - मेद और शुक्र रसादि सात धातुओं को अथवा कर्मों को जिसके द्वारा तपाया जाये अर्थात् जलाया जाये, उसे तप कहा जाता हैं। वह मोहनीय और वीर्यान्तराय ये दो कर्म के सहचारी क्षयोपशम से हीनाधिक और क्षय से संपूर्ण प्रकट होता है । ये तप-कर्मों से छूटने का, स्वस्वरूप की और बलपूर्वक जाने के लिए आत्मा का प्रयत्न । (५) वीर्य - वीर्य अर्थात् योग, उत्साह, बल, पराक्रम, शक्ति इत्यादि कहा जाता हैं । वह करणवीर्य और लब्धिवीर्य ऐसे दो प्रकार से है । मन वचन काया के आलंबन से प्रवर्त्तित वीर्य वह करणवीर्य और ज्ञान - दर्शनादिक के उपयोग में प्रवर्तित आत्मा का स्वाभाविक वीर्य वह लब्धिवीर्य कहा जाता हैं अथवा आत्मा में शक्ति रूप से रहा हुआ वीर्य वह लब्धिवीर्य और वीर्य की प्रवृत्ति में निमित्तभूत मन-वचन और काया रूप करण - साधन वह करणवीर्य । करणवीर्य सर्व संयोगी संसारी जीवों को होता है और लब्धिवीर्य तो वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से सर्व छद्मस्थ जीवो को हीन वा अधिक आदि असंख्य प्रकार का होता है और केवलि भगवंत को तथा सिद्ध परमात्मा को तो वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से संपूर्ण और एक समान अनन्त लब्धिवीर्य प्रकट हुआ होता हैं । यह वीर्य सर्वजीव द्रव्य में होता हैं । उपरांत जीवद्रव्य के सिवा अन्य कोई भी द्रव्य में नहीं हो सकता है, इसलिए वीर्यगुण यह जीव का लक्षण हैं । यहाँ वि अर्थात् विशेष से आत्मा को ईरयति अर्थात् तत् तत् क्रियाओं में प्रेरित प्रवर्तित करे, उसे वीर्य कहा जाता 1 शंकाः-वीर्य अर्थात् शक्ति तो पुद्गल द्रव्य में भी हैं । क्योंकि परमाणु एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक शीघ्रगतिवाला होकर पहुँच जाता है, तो वीर्य जीव का ही लक्षण क्यों है ? उत्तर:- सामान्य से शक्ति धर्म तो सर्व द्रव्य में होता ही है और उसके बिना कोई भी द्रव्य अपनी-अपनी अर्थ क्रियामें प्रवर्तित नहीं हो सकता हैं । इसलिए ऐसे सामान्य शक्ति धर्म, वह यहाँ वीर्य कहा नहीं जाता हैं, परन्तु योग, उत्साह, पराक्रम इत्यादि पर्याय का अनुसरण करनेवाला जो वीर्य गुण और वह रूप आत्म शक्ति समजे, वह तो केवल आत्म द्रव्य में ही होती हैं, इसलिए वीर्य यह जीव का ही गुण हैं । (६) उपयोगः- वह पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन ऐसे १२ प्रकार का है, उसमें भी ज्ञान का साकार उपयोग और चार प्रकार के दर्शन का निराकार उपयोग होता है; इसलिए वह साकार - निराकार रूप १२ उपयोग मैं से यथासंभव उपयोग एक वा अधिक तथा हीन वा अधिक प्रमाण में जीव को अवश्य होता हैं । उपरांत जीव के सिवा अन्य द्रव्य में उपयोग गुण नहीं हो सकता, इसलिए उपयोग यह जीव का लक्षण 1 सूक्ष्म एकेन्द्रियादि जीवो को ज्ञान आदि किस तरह से है ? सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीव को उत्पत्ति के प्रथम समय में भी मति, श्रुत ज्ञान का अनन्तवाँ भाग खुला होता हैं और वह प्रथम समय में एक पर्याय जितना ही श्रुतज्ञान नहि, परन्तु अनेक पर्याय जितना (अर्थात् पर्याय समास ) श्रुतज्ञान होता हैं । इसलिए उसमें भी ज्ञान लक्षण हैं । यद्यपि अति अस्पष्ट हैं, तो भी मूर्च्छागत मनुष्यवत् अथवा निद्रागत मनुष्यवत् किंचित् ज्ञानमात्रा तो अवश्य होती हैं । इस प्रकार अनन्त भाग जितना और अस्पष्ट अचक्षुर्दर्शन होने से दर्शन लक्षण भी है और वह ज्ञान तथा दर्शन क्षयोपशम भाव के है । अब चारित्र का आवरण करनेवाला कर्म यद्यपि सर्वघाती हैं, तो भी अति चढे हुए महामेघ के समय भी दिन रात का विभाग समझ में आये ऐसी सूर्य की अल्प प्रभा हंमेशा खुली ही रहती है वैसे चारित्र गुण का घात करनेवाला कर्म यद्यपि सर्वघाती (सर्वथा घात करनेवाला) कहा हैं, तो भी चारित्र गुण की किंचित् मात्रा तो खुली ही होती हैं, ऐसे सिद्धांतों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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