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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ७७, मीमांसक दर्शन ३७३ / ९९६ नहीं । इसलिए जब वह निरंशवस्तु पूर्णतया प्रत्यक्षादि प्रमाणो से ग्रहण हो ही जाती है, तब उसमें ऐसा कौन सा दूसरा असदंश बाकी रहता है कि उसको जानने के लिए अभाव प्रमाण की आवश्यकता हो ? समाधान : वस्तु स्वरुप और पररुप की अपेक्षा से सदसदात्मक है । यदि वस्तु सदसदात्मक न हो, तो उसमें वस्तुता का योग ही नहीं होगा । अर्थात् वह वस्तु ही नहि रहेगी। (कहने का मतलब यह है कि वस्तु न तो निरंश है, न तो केवल सदंशवाली है। वस्तु में तो सत् और असत् दोनो ही अंश है। वस्तु में स्वरुप की अपेक्षा से सदंश है और परवस्तुओ की अपेक्षा से असदंश है। यदि वस्तु स्वरुप से सत् न हो, तो कुछ भी नहीं रहेगा। सर्वथा असत् ही बन जायेगा । उसी तरह से वस्तु यदि पररुप से असत् न हो तो स्व-पर का विभाग नहीं हो सकेगा । इसलिए वस्तु को सदसदात्मक मानेंगे तो ही उसमें वस्तुत्व रह सकेगा ।) शंका : “सत्” अंश से "असत्" अंश अभिन्न होने से, जब प्रत्यक्षादि प्रमाण से वस्तु के सदंश का ग्रहण होगा, तब वस्तु के असदंश का भी ग्रहण हो जायेगा । इसलिए असदंश को ग्रहण करनेवाले स्वतंत्र अभावप्रमाण को मानने की आवश्यकता नहीं है । (धर्म और धर्मी में तादात्म्य होने से धर्मो में भी परस्पर तादात्म्य ही हो जाना चाहिए। इस अपेक्षा को आगे करके यह शंका की गई है ।) समाधान : धर्मी अभिन्न होने पर भी उस धर्मी के सदंश और असदंशरुप धर्मो में भेद माना गया है | अर्थात् सदंश और असदंशरुप धर्मो का धर्मी अभिन्न है - एक ही है । परंतु उसका परस्पर भेद भी है। इसलिए धर्मी की दृष्टि से परस्परतादात्म्य होने पर भी स्वरुप की दृष्टि से दोनो धर्मो में भिन्नता है । इसलिए ही (सदंश का प्रत्यक्षादिप्रमाण से ग्रहण होने पर भी प्रत्यक्षादिप्रमाण से अगृहीत असदंश बाकी रहता है । इसलिए ही) प्रत्यक्षादिप्रमाणो से अगृहीतप्रमेयाभाव नाम के प्रमेय को ग्रहण करनेवाले प्रमाणाभाव =अभाव नाम के प्रमाण की स्वतंत्र प्रमाण के रुप में आवश्यकता रहती है। अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणो से अगृहीत असदंशो के ग्राहक अभाव प्रमाण की स्वतंत्रसिद्धि हो जाती है । मूलग्रंथकार द्वारा नहि कहा हुआ कुछ स्पष्टता के लिए कहा जाता है। अगृहीत को जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है । पूर्व-पूर्व प्रमाण है और उत्तर - उत्तर फल है। अर्थात् पूर्व-पूर्व साधकतम अंश प्रमाण है और उत्तर - उत्तर अंश फल है। सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय बनती है। मीमांसामत में ज्ञान नित्यपरोक्ष है। भाट्टमत में अर्थप्राकट्यरुप फल से तथा प्रभाकरमत में संवेदनरूप फल से ज्ञान अनुमेय है । वेद अपौरुषेय है। वेदोक्तहिंसा धर्म के लिए होती है। अर्थात् वेदोक्तहिंसा से धर्म होता है। शब्द नित्य है। सर्वज्ञ नहीं है। अविद्या कि जिसका दूसरा नाम माया है, उस माया के वश से - माया के विवर्त से प्रतिभासित होता यह सर्व जगत प्रपंच अपारमार्थिक है । अर्थात् दृश्यमानजगत की सत्ता प्रातिभासिक है । पारमार्थिक नहीं है। अर्थात् जगत मिथ्या है। ब्रह्म ही परमार्थ सत् है |||७६|| 1 T उपसंहरन्नाह - मीमांसक मत का उपसंहार करते हुए कहते है....... - (मू. श्लो.) जैमिनीयमतस्यापि सङ्क्षेपोऽयं निवेदितः । Jain Education International एवमास्तिकवादानां कृतं सङ्क्षेपकीर्तनम् ।।७७।। For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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