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________________ २४४/८६७ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - २, श्लोक - ५७, जैनदर्शन अर्थात् एक ही वस्तु में प्रतीत होते सत्त्व और असत्त्व के विरोध का संभव नहीं है। क्योंकि विरोध का लक्षण अनुपलब्धि है। अर्थात् विरोध उसमें होता है कि जो दो की एकसाथ अनुपलब्धि होती हो। जैसे कि (वन्ध्या स्त्री के गर्भ में बालक होता नहीं है। इसलिए) वन्ध्या स्त्री के गर्भ में बालक का विरोध होता है। __ तथा (जिस समय) स्वरुप की अपेक्षा से सत्त्व रहता है, उस समय पररुप की दृष्टि से असत्त्व की अनुपलब्धि होती नहीं है, कि जिससे सह अनवस्थान रुप विरोध हो। एक ही वस्तु में एक ही समय शीत और उष्ण एकसाथ रह नहीं सकते । इसलिए उसमें सहानवस्थान – एकसाथ नहि रहना - नाम का विरोध आता है। परंतु स्वरुप की अपेक्षा से सत्त्व और पररुप की अपेक्षा से असत्त्व को वस्तु में रखने से तादृशविरोध आता नहीं है। __ कहने का मतलब यह है कि वस्तु जब शीत हो तब, उसमें उष्ण की अनुपलब्धि होती है और वस्तु उष्ण हो तब, उसमें शीत की अनुपलब्धि होती है। इसलिए दोनो एकसाथ नहि रहने रुप विरोध उभय में आता है। परंतु वस्तु में रहे हुए सत्त्व और असत्त्व के लिए ऐसा नहीं है। क्योंकि यदि वस्तु में जब सत्त्व रहता है, तब उसमें (किसी भी अपेक्षा से) असत्त्व की अनुपलब्धि होती है, तो उन दोनो के बीच विरोध माना जा सकेगा। परंतु वैसा नहीं है। घट जो समय घट है, उस समय पट नहीं है। इसलिए घट में घटस्वरुप की अपेक्षासे सत्त्व है और पटस्वरुप की अपेक्षा से असत्त्व है। इसलिए उभय को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से एक वस्तु में मानने में कोई विरोध नहीं है। परस्पर परिहार स्थिति-स्वतंत्रस्थितिरुप विरोध। जैसे एक आम के फल में रुप और रस की विद्यमानता हो तब ही रुप की स्वतंत्रस्थिति रस के परिहारपूर्वक होती है और रस की स्वतंत्रस्थिति रुप के परिहारपूर्वक होती है। इसलिए स्वतंत्रस्थिति विरोध मानना हो तो पहले एक वस्तु में दो धर्मो का स्वीकार करना ही पडेगा । इसलिए एक ही वस्तु में सत्त्व और असत्व का परस्पर परिहार (= संभवित ऐसे सत्त्व असत्त्व का ही परस्पर परिहार = स्वतंत्रस्थितिरुप विरोध) आयेगा। परंतु दोनो एक वस्तु में अविद्यमान हो तब तथा एक विद्यमान हो और एक अविद्यमान हो तब तादृशविरोध आता नहीं है। इसलिए एक निर्णय हुआ कि तादृशविरोध दोनो धर्म एक वस्तु में विद्यमान हो तब ही आयेगा। तब तो वस्तु में उभय की सत्ता सिद्ध हो जाती है। उससे वस्तु की अनेकान्तात्मकता स्वयं ही सिद्ध हो जाती है। उपरांत, वध्य-घातकभावरुप विरोध बलवान सांप और कमजोर नेवले के बीच ही प्रतीत होता है। परंतु वह विरोध सत्त्व और असत्त्व के बीच शंका करने योग्य नहीं है। क्योंकि सत्त्व और असत्त्व समान समान बलवाले है। अर्थात् बलवान सांप से कमजोर नेवला मारा जाता है। इसलिए उन दोनो के बीच वध्यघातकभाव स्वरुप विरोध है। परंतु सत्त्व या असत्त्व समान बलवाले होने से परस्पर एकदूसरे को मार नहीं सकते। इसलिए तादृश विरोध उन दोनो के बीच नहीं है। जैसे मोर के अण्डे के रस में स्वभाव से अनेक वर्ण होते है। वैसे वस्तु में स्वभाव से ही सत्त्व-असत्त्व आदि अनेक धर्म होते है। अब आप बताये कि ये सत्त्व - असत्त्व आदि धर्मो में विरोध किस कारण से आता है ? (१) क्या दोनो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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