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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ५५, जैनदर्शन २०५/८२८ है। इस प्रकार द्रव्यतः घट अनंतधर्मात्मक सिद्ध किया गया। अब क्षेत्रतः घट की विवक्षा करके घट की अनंत धर्मात्मकता सिद्ध की जाती है। क्षेत्रतश्च स त्रिलोकीवर्तित्वेन विवक्षितो न कुतोऽपि व्यावर्तते । ततः स्वपर्यायोऽस्ति न परपर्यायः । त्रिलोकीवर्त्यपि स तिर्यगलोकवर्तित्वेनाऽस्ति न पुनरूवा॑धोलोकवर्तित्वेन । तिर्यग्लोकवर्त्यपि स जम्बूद्वीपवर्तित्वेनाऽस्ति न पुनरपरद्वीपादिवर्तितया । सोऽपि भरतवर्तित्वेनाऽस्ति न पुनर्विदेहवर्तित्वादिना । भरतेऽपि स पाटलिपुत्रवर्तित्वेनाऽस्ति न पुनरन्यस्थानीयत्वेन । पाटलिपुत्रेऽपि देवदत्तगृहवर्तित्वेनाऽस्ति न पुनरपरथा । गृहेऽपि गृहैकदेशस्थतयाऽस्ति न पुनरन्यदेशादितया । गृहैकदेशेऽपि स येष्वाकाशप्रदेशेष्वस्ति तत्स्थिततयाऽस्ति न पुनरन्यप्रदेशस्थतया । एवं यथासम्भवमपरप्रकारेणापि वाच्यम् । तदेवं क्षेत्रतः स्वपर्यायाः स्तोकाः परपर्यायास्त्वसंख्येयाः, लोकस्यासङ्ख्येयप्रदेशत्वेन । अथवा मनुष्यलोकस्थितस्य घटस्य तदपरस्थानस्थितद्रव्येभ्योऽनन्तेभ्यो व्यावृत्तत्वेनानन्ताः परपर्यायाः । एवं देवदत्तगृहादिवर्तिनोऽपि । ततः परपर्याया अनन्ताः ।। व्याख्या का भावानुवाद : क्षेत्रतः विवक्षित वह सुवर्णघट त्रिलोकवति होने के कारण वह किसीसे भी व्यावृत्त होता नहीं है। कहने का मतलब यह है कि क्षेत्र की दृष्टि से जब घट त्रिलोकवर्ति-व्यापकरुप से विवक्षित होता है, तब वह किसी से व्यावृत्त होता नहीं है। इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से घट का स्वपर्याय ही बनेगा। परंतु घट का परपर्याय कोई नहीं बन सकेगा। (यद्यपि अलोकाकाश में घट रहता नहीं है। इसलिए अलोकाकाश को घट का परपर्याय कहा जा सकता है। परंतु घट किसी भी संयोग में चाहे तो भी अलोकाकाश में नहीं रह सकता है वह सर्वदा लोक में ही रह सकता है। इसलिए उस स्वरुप से परपर्याय की विवक्षा नहीं की गई। फिर भी घट आकाश में रहता है। ऐसी विवक्षा में जब आकाश स्वपर्याय होगा, तब परपर्याय कोई होगा ही नहीं।) त्रिलोकवति भी घट ति लोकवर्तित्वेन विद्यमान ही है। परन्तु उर्ध्व-अधोलोकवर्तित्वेन अविद्यमान है। अर्थात् त्रिलोकवति भी घट तिर्छालोक में रहता है, इसलिए ति लोक की दृष्टि से सत् है और उर्ध्व या अधोलोक में रहता नहीं है, इसलिए उसकी अपेक्षा से असत् है। ति लोकवति भी घट जंबूद्वीपवर्तित्वेन विद्यमान है, परंतु अपरद्वीपादिवर्तितया अविद्यमान है। अर्थात् ति लोकवर्ति भी घट जंबूद्वीप में रहता होने से जंबूद्वीप की अपेक्षा से सत् है। अपरद्वीपो में रहता न होने से अपरद्वीपो की अपेक्षा से असत् है। जंबूद्वीपवति भी घट भरतक्षेत्रवर्तित्वेन विद्यमान है। परंतु विदेहादिक्षेत्रवर्तित्वेन अविद्यमान है । अर्थात् जंबूद्वीपवति भी घट भरतक्षेत्र में रहता होने से भरतक्षेत्र की अपेक्षा से सत् है और विदेहादिक्षेत्र में रहता न होने से उसकी अपेक्षा से असत् है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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