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________________ षड्दर्शन समुश्चय भाग - २, श्लोक - ५२, जैनदर्शन १५७/७८० दिस्वभावोपादानाञ्च । सिद्धे चास्य परिणामिनित्यत्वे सुखादिपरिणामैरपि परिणामित्व मस्याभ्युपगन्तव्यं, अन्यथा मोक्षाभावप्रसङ्गः । ततश्च न कथमपि सांख्यपरिकल्पितो मोक्षो घटत इति यथोक्तस्वरूप एवानन्तसुखादिस्वरूपोऽभ्युपगन्तव्यः ।। व्याख्या का भावानुवाद : यदि प्रकृतिसंयोग निर्हेतुक हो तो मुक्तात्मा को भी प्रकृति के संयोग का प्रसंग आयेगा। वैसे ही आप जवाब दीजिये कि.... आत्मा जिस समय प्रकृति को ग्रहण करता है, उस समय पहले की अवस्था का त्याग करता है या त्याग करता नहीं है ? यदि आत्मा प्रकृति को ग्रहण करे तब पूर्वअवस्था का त्याग करता हो, तो अनित्य मानने की आपत्ति आयेगी । अर्थात् आप आत्मा को जो कूटस्थनित्य मानते हो वह नहीं मान सकोंगे और यदि प्रकृति के ग्रहणकाल में आत्मा पूर्व अवस्था का त्याग करता न हो, तो प्रकृति का ग्रहण संभव नहीं बनेगा। क्योंकि जैसे देवदत्त बाल्य अवस्था को छोडता नहीं है तब तक तरुणावस्था का स्वीकार नहीं कर सकता है। अवस्थान्तर की प्राप्ति में पूर्वअवस्था का त्याग जरुरी है। वैसे आत्मा अपने कूटस्थनित्य स्वभाव का त्याग न करे, तब तक प्रकृति के साथ की संयोगरुप नई अवस्था का स्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए किसी भी तरह से सांख्यमत में आत्मा के साथ प्रकृति का संयोग होता नहीं है। इसलिए संयोग के अभाव में प्रकृति का वियोग भी होता नहीं है। क्योंकि संयोगपूर्वक ही वियोग होता है अर्थात् जिनका संयोग हो, उनका ही वियोग हो सकता है। __ तदुपरांत, आपने पहले विवेकख्याति की चर्चा की थी, वह भी विचारविहीन रमणीय है। आप बतायें की विवेकख्याति का अर्थ क्या है ? यदि अपने-अपने स्वरुप में अवस्थित प्रकृति और पुरुष का भिन्न-भिन्न प्रतिभास होना वही विवेकख्याति का अर्थ है, तो वैसी विवेकख्याति प्रकृति को होती है या पुरुष को होती है? प्रकृति को तो विवेकख्याति होती नहीं है। क्योंकि प्रकृति स्वयं असंवेद्यपर्व में स्थित है अर्थात् उसमें कोई ज्ञान होता नहीं है। वह स्थित है। प्रकृति अचेतन है तथा प्रकृति में विवेकख्याति का आपने स्वीकार नहीं किया है। आत्मा को भी विवेकख्याति होती नहीं है। क्योंकि वह भी स्वयं असंवेद्यपर्व में स्थित है। इसलिए अज्ञानी है। आपने "प्रकृति भी समज जाती है कि पुरुषने मुजे विरुपा मान ली है।" इत्यादि जो कहा था, वह बिना सोचे किया गया कथन है। क्योंकि प्रकृति जड होने के कारण ऐसे प्रकार का उसको ज्ञान होना संभव नहीं है। तथा मान ले कि पुरुष ने प्रकृति को विरुपा मान लिया, तो भी विज्ञानवाली प्रकृति संसार अवस्था में जैसे पुरुष के भोग के लिए प्रवर्तित है, वैसे मोक्ष में भी मुक्तात्मा के लिए स्वभाव से प्रवर्तित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004074
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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