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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ २८७ रजस् : अप्रीति, उपष्टम्भन, चल, दुःख, द्वेष, द्रोह, मत्सर, निंदा, उत्कंठा, तिरस्कार, शठता, वंचना, बंध, वध, छेदन, शोक, अशान्ति, युद्ध, आरंभरुचिता, तृष्णा, संग, काम, क्रोध आदि। तमस् : विषाद, गुरु, आवरण, मोह, अज्ञान, मद, आलस्य, भय, दैन्य, अकर्मण्यता, नास्तिकता, स्वप्न, निद्रा इत्यादि। इस तरह से गुणो का स्वरुप समजाया । अब उसका प्रयोजन भी स्पष्ट करते है। सत्त्व यह प्रकाश के लिए है। अर्थात् वस्तुमात्र में रहे हुए सत् को-मूलतत्त्व को प्रकाशित करता है। और उस तरह से उसका बुद्धि के साथ सीधा संबंध है। सत्त्वगुण लघु है । प्रकाश के जैसे ही हलका है। उसकी वृत्ति सर्जनव्यापार करने की है। और उसको गति देता है रजोगुण । क्योंकि रजोगुण का ध्येय ही प्रवृत्ति है। परंतु इस गति को अवरोधित करनेवाला-नियमन करनेवाला और उस अर्थ में नीचे ले जाने की वृत्तिवाला बल वह तमोगुण है। सत्त्व की बिलकुल सामने की दिशा में तमोगुण रहा हुआ है। यदि वह रास्ते में न आये तो रजोगुण पडा हुआ है। यदि वह रास्ते में न आये तो ही रजोगुण सत्त्वगुण की सर्गक्रिया में प्रयोजन कर सकता है। ये तीन गुण परस्पर अभिभव करते है। यानी कि कभी रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण प्रकट होता है, तो कभी सत्त्व और तमोगुण को दबाकर रजोगुण अवस्थित होता है। कभी अन्य दो को दबाकर तमोगुण विशेष बाहर आता है। तीनो परस्पर आश्रय देनेवाले है। यद्यपि आश्रय यानी आधार देनेवाले ऐसा नहीं है। परन्तु परस्पर को सहकार देनेवाले है ऐसा समजना है। वैसे ही ये तीनो गुण उत्पत्तिक्रिया में परस्पर सहाय करनेवाले है । उत्पत्ति अर्थात् किसी बिलकुल अपूर्व की उत्पत्ति नहीं । परन्तु जे ते रुप में परिवर्तित करना वह । इसके उपरांत ये गुण अन्योन्य मिथुनवृत्तिवाले होते है । एकदूसरे के साथ जुड़े हुए होते है। अब तीन गुण को सोदाहरण समजाते हुए कहते है कि, सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरुवरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः ॥१३॥ - सत्त्वगुण लघु, प्रकाशक और इष्ट है। रजोगुण उत्साहोत्पादक और अस्थिर है। तमोगुण भारी और आच्छादक है । वे दीपक की तरह एक ही अर्थ (प्रयोजन) के लिए क्रिया (वृत्ति) करता है । (कारिका - १३) भावार्थ : सत्त्वगुण लघु और प्रकाशक माना गया है । रजोगुण उत्तेजक और चल है। तमोगुण गुरु और आवरणरुप है। उनकी क्रियायें दीपक की भांति एक ही प्रयोजन के लिए होती है। कहने का मतलब यह है कि. दीपक में (दीये में) जैसे बाती, तेल और ज्योत तीनो परस्पर से भिन्न (अलग) है। इतना ही नहीं परन्तु विरोधी भी है। तो भी प्रकाश की क्रिया में वे एकसाथ जुडते है। ऐसा तीन गुणो में समजना। इसके उपरांत श्री वाचस्पति मिश्र दूसरा उदाहरण देते है कि, जिस तरह से वात, पित्त और कफ परस्पर विरुद्ध गुण रखनेवाली धातु होने पर भी शरीर के धारण, पोषण इत्यादि में सहायभूत होती है। उसी तरह से ही ये गुण परस्पर विरुद्ध होने पर भी परस्पर के साथ बसकर उसका प्रयोजन सिद्ध करते है। ये तीनो गुण के सुख, दुःख और मोह जैसे विरोधी धर्म होते हुए भी उनका कार्य एक साथ हो सकता है। वह समजाते हुए श्री वाचस्पतिमिश्र एक रुपयौवनकुलसम्पन्न स्त्रीका उदाहरण देते है। यह स्त्री उसके पति को सुख देती है। सपत्नी को दुःख देती है और कोई अन्य पुरुष को मोहित करती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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