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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ २७३ "विविक्ते दृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते । प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छो यथा चन्द्रमसोऽम्भसि ॥ अर्थात् पुरुष असंग है, तो भी चंद्र का प्रतिबिंब जल में पडता है, तब जल के कारण वह भी स्वच्छ या चंचल लगता है। उसी तरह से बुद्धि के दृक्रुप में परिणत होने से वह पुरुष भोग भोगता है, ऐसा लगता है। स्याद्वाद मंजरी में श्री विन्ध्यवास का श्लोक दिया गया है। वह नीचे बताये अनुसार से है। "पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा ॥ अर्थात् पुरुष अविकारी है। परन्तु स्फटिक में जैसे रंगीन पुष्प का प्रतिबिंब पडने से वह भी रंगीन लगता है। वैसे मन (बुद्धि) सान्निध्य के कारण पुरुष में प्रतिबिंबित होता है। इस तरह से पुरुष और प्रकृति का संबंध अलग अलग तरीके से समजाया गया है। एकका दूसरे में या उभय का एकदूसरे में प्रतिबिंब पडता है और इसलिए अचेतन को चेतनका और चेतन को अचेतन के धर्मो का अध्यास होता है। ऐसा माना गया है। (२) प्रकृति : "प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥" पातंजल योगदर्शन २-१८ ॥ अर्थात् पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिए भूत और इन्द्रिय रुप में परिणाम पाता हुआ प्रकाश, क्रिया और स्थितिरुप स्वभाववाले सत्त्व, रजस् और तमस्, ये तीन गुणरुप प्रकृति दृश्य है। (पुरुष द्रष्टा है।) अर्थात् प्रकाशस्वभाववाला सत्त्व है। क्रियास्वभाववाला रजस् है और स्थितिस्वभाववाला तमस् है। इसलिए ये समस्तपदो का यह अर्थ हुआ कि, सत्त्व, रजस् और तमस् रुप इन द्रव्यो के प्रकाशादि गुण सर्ग के समय उद्भूत रुप में होते है। परन्तु प्रलय के समय उस रुप में रहते नहीं है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश ये पाँच स्थूलभूत है और गंधतन्मात्रा, रसतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, शब्दतन्मात्रा, रुपतन्मात्रा, ये पांच सूक्ष्मभूत है। भूत कुल मिलाके १० है। इन्द्रिय भी स्थूल और सूक्ष्मरुप में है। वहाँ स्थूल इन्द्रिय में पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय सथा मन इस तरह ११ का ग्रहण करना। और सूक्ष्मइन्द्रिय में महद् (बुद्धि) और अहंकार का ग्रहण करना । सही में देखते हुए भूत और इन्द्रिय, ये सत्त्वादि द्रव्य के कार्यरुप है । तथापि इस शास्त्र में सत्कार्यवाद का सिद्धांत है। इसलिए कार्य का कारण से वस्तुत: अभेद ही माना है। इस नियम से भूत, इन्द्रियरुप परिणाम (कार्य) अपने परिणामीरुप (कारणरुप) गुणत्रय से अतिरिक्त नहीं है। परन्तु वही रुप से ही है। यह बताने के लिए इस स्थान पे भूत और इन्द्रिय को उस गुणत्रय का स्वरुप ही कहा है। एक ऐसा नियम है कि जो गुण कार्य में हो वे उसके उपादानकारण में अवश्य होने चाहिए। यानी कि जो गुणवाला कार्य हो वह गुणवाला उसका कारण होना चाहिए । भूत और इन्द्रिय में स्पष्ट रुप से प्रकाश, किया और स्थिति ये तीन गुण दिखते है। इसलिए इस नियम के अनुसार ये गुणोवाले भूत और इन्द्रियरुप जड कार्यो का सद्भाव तब हो सकेगा कि, जब उसके कारण में ये तीन गुण हो, इसलिए कार्यलिंगी अनुमान से प्रकाशादि धर्मवाले कारण की अर्थात् सत्त्वादि त्रिगुणात्मक प्रकृत्ति की सिद्धि होती है। __ महत् तत्त्व से लेकर पृथ्वी आदि के स्थूल अणु पर्यन्त जो परिणाम पाता है तथा जिसके ये परिणाम द्रष्टा के भोग और अपवर्गरुप प्रयोजन को लेकर होता है, वे सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीन गुण वह दृश्य-प्रकृति है। शंका : ये भोग और अपवर्ग तो बुद्धि के वृत्तिरुप है। इसलिए बुद्धि में रहे हुए है। तो फिर पुरुष के ये दो प्रयोजन किस तरह से कहे जायेंगे? और इसलिए यदि सत्त्वादि द्रव्य इस प्रयोजन के लिए महत् इत्यादि रुप में परिणाम प्राप्त करते हो, तो फिर इस द्रव्य को इस शास्त्र में स्वतंत्र माना गया है वह अयोग्य सिद्ध होगा? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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