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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन २०५ “जातय" इत्यादि, दूषणाभासा जातयः । C-53अदूषणान्यपि दूषणवदाभासन्त इति दूषणाभासाः । यैः पक्षादिः पक्षहेत्वादिर्न दुष्यत आभासमात्रत्वान्न दूषयितुं शक्यते, केवलं सम्यगहेतौ हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते झगिति तद्दोषत्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थानं जातिः । सा च चतुर्विंशतिभेदा साधादिप्रत्यवस्थानभेदेन । यथा-'साधर्म्य 'वैधर्म्य उत्कर्ष अपकर्ष "वर्ण्य अवर्ण्य विकल्प ‘साध्य 'प्राप्ति १०अप्राप्ति प्रसङ्ग प्रतिदृष्टान्त अनुत्पत्ति १"संशय "प्रकरण हेतु'६ १७अर्थापत्ति “अविशेष "उपपत्ति २०उपलब्धि अनुपलब्धि नित्य २ २३अनित्य कार्यसमा । तत्र (अ)साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिर्भवति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति प्रयोगे कृते साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम् । यद्यनित्यघटसाधर्म्यात्कृतकत्वादनित्यः शब्द इष्यते, तर्हि नित्याकाशसाधादमूर्तत्वान्नित्यत्वं प्राप्नोतीति १ । टीकाका भावानुवाद : दूषण के आभास को जाति कहा जाता है। अदूषण भी दूषण जैसे लगे उसे दूषणाभास कहा जाता है और वह दूषणाभास जातिरुप है। ___ कहने का मतलब यह है कि जिनके द्वारा पक्ष, हेतु आदि दूषित नहीं होते। क्योंकि आभासमात्र होने से दूषित करने के लिए संभव भी नहीं है। परन्तु केवल वादि के द्वारा प्रयोजित सम्यग् हेतु में या हेतु के आभास में यकायक (अचानक) उसके दोषत्व का अप्रतिभास होने पर भी हेतु की तुलना द्वारा किसी भी प्रकार से, खण्डन करना उसे जाति कहा जाता है। वह जाति साधर्म्यादि प्रत्यवस्थान के भेद से २४ प्रकार की है। (१) साधर्म्य, (२) वैधर्म्य, (३) उत्कर्ष, (४) अपकर्ष, (५) वर्ण्य, (६) अवर्ण्य, (७) विकल्प, (८) साध्य, (९) प्राप्ति, (१०) अप्राप्ति, (११) प्रसंग, (१२) प्रतिदृष्टांत, (१३) अनुत्पत्ति, (१४) संशय, (१५) प्रकरण, (१६) हेतु, (१७) अर्थापत्ति, (१८) अविशेष, (१९) उपपत्ति, (२०) उपलब्धि, (२१) अनुपलब्धि, (२२) नित्य, (२३) अनित्य और (२४) कार्य । यहाँ प्रत्येक २४ जाति के नाम के पीछे “समा" जोडना । इसलिए साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा इत्यादि समजना। (१) साधर्म्यसमा जाति : साधर्म्य के द्वारा खंडन करना उसे साधर्म्यसमा जाति कहा जाता है। अर्थात् साधर्म्य के द्वारा साध्य का प्रतिषेध करना उसे साधर्म्यसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि "शब्दोऽनित्य, कृतकत्वात्, घटवत्।" इस अनुसार प्रयोग किया होने पर भी साधर्म्य का प्रयोग द्वारा खंडन करना । (उसे साधर्म्यजाति कहा जाता है।) वह इस प्रकार से है - (अ) साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्यवैधर्म्यसमौ ।। न्याय सू. ५।१ ।२ । । साधर्म्यण समवस्थानं साधर्म्यसमा जातिर्भवति । वैधhण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिर्भवति ।। न्याक० पृ० १७ ।। (C-53)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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