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________________ राज्यदिन से ३८वें वर्ष ९ विजय दसमी के दिवस लाहोर (लाभपुर) में हुई है। अनुष्टप् और आर्याछद में ५३७ पद्य हैं। संस्कृत में रचना होते हुए भी सरल एवं सुबोध है। यह ग्रन्थ महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा हिन्दी अनुवाद सह मुद्रण हो चुका था किन्तु प्रकाशन न हो सका सिंघी जैन ग्रन्थमाला सीरीज में भारतीय विद्या भवन, मुंबई से प्रकाशित हो चुका है। २. ईर्यापथिकीषट्त्रिंशिका स्वोपज्ञ वृत्ति सह–इसका मूल प्राकृत भाषा में है और नामानुसार ३६ आर्या छन्द में है, मूल की रचना२° सं० १६४० में हुई है और टीका की रचना स्वयं ने १६४१२१ में की है। टीका संस्कृत भाषा में प्रौढ एवं विस्तृत है। इस ग्रन्थ में धर्मसागरीय ईर्यापथिकीषट्त्रिंशिका का ६० ग्रन्थों के प्रमाणों के आधार से खण्डन करते हुए खरतरगच्छीय सामाचारी के अनुसार सामायिक में सामायिक दण्डकसूत्र के पश्चात् ईर्यापथिकी का सिद्धान्त स्वीकार किया है। यह ग्रन्थ जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से प्रकाशित हो चुका है। ३. पौषधषट्त्रिंशिका स्वोपज्ञवृत्ति सह-इसका मूल प्राकृत भाषा में ३६ आर्याओं में है और टीका संस्कृत में है। मूल की रचना १६४३,२२ टीका की रचना सं० १६४५२३ श्रावण शुक्ला ५ को हुई है। ग्रन्थ की रचना आचार्य जिनचन्द्रसूरि के आदेश से हुई है। इस ग्रन्थ में ७५ ग्रन्थों के आधार से खरतरगच्छ की मान्यतानुसार श्रावक को पौषध कब करना चाहिए, इसका प्रतिपादन है। यह ग्रन्थ जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत से प्रकाशित हो चुका है। ४. स्थापना षट्त्रिंशिका-अनुपलब्ध है, केवल उद्धरण२४ प्राप्त है। ५. प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक-यह ग्रन्थ राजस्थानी गद्य में है। तपागच्छीय उपासकों ने खरतरगच्छ की परम्परा एवं मान्यताओं के संबंध में छद्मरूप से जो १४० प्रश्न२५ किये थे उनका इसमें १३० ग्रन्थों के प्रमाणों के आधार से उत्तर देते हुए अपने गच्छ की समाचारी का विवेक पूर्ण पद्धति से स्थापन किया है। इस ग्रन्थ की रचना जिनचन्द्रसूरि के आदेश से हुई है। लेखक ने रचना संवत् का उल्लेख नहीं किया है किन्तु जिनचन्द्रसूरि के लिये 'युगवर'२६ का प्रयोग होने से स्पष्ट है कि इसकी रचना सं० १६५० के बाद की है। यह ग्रन्थ स्व० बुद्धिमुनिजी कृत गुजराती अनुवाद के साथ महावीर स्वामी जैन ट्रस्ट, पायधुनी, मुंबई से प्रकाशित हो चुका है। ६. षड्विंशति प्रश्नोत्तराणि-यह ग्रन्थ राजस्थानी गद्य में है। इसमें मुलतान निवासी गोलवच्छा गोत्रीय सा० ठाकुरसी२७ ने जो २६ प्रश्न लिखित रूप में किये थे उनका युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के धर्मसाम्राज्य में, युवराजाचार्य जिनसिंहसूरि के आदेश से लाहोर में रहते हुए लेखक ने ७६ ग्रन्थों के प्रमाणों के आधार से उत्तर प्रदान किया है। भाषा सजीव एवं प्राञ्जल है। इस ग्रन्थ में लेखक ने अपनी लघुता के साथ विचारशीलता प्रदर्शित करते हुए लिखा है "मैंने इन प्रश्नों के उत्तर केवल दृष्टिराग (गच्छानुराग) से नहीं दिये हैं किन्तु जैसा आगमों एवं परम्परा द्वारा मान्य सिद्धान्त है, वैसा ही लिखा है। अथवा गच्छ का अनुराग किसको नहीं होता। अत: अनुराग के कारण भी यदि कुछ मैंने मिथ्या कहा हो तो मैं 'मिथ्यादुष्कृत' करता हूँ।"२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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