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________________ १२९ मनवंछित फल देवा जेह, सुख अंकूर वधारिवा मेह ॥ ५६७ ॥ तिण गच्छ तणो धणी जिनराज, वीरने वंसइ श्रीजिनराज। सूरीसर आयउ सिरताज, कुमत कुरंगभंगि मृगराज ॥ ५७० ॥ तेहनइ राजि वदन जसु वारिज, श्रीजिनसागर जिहां आचारिज। युवराजइ रह्यउ जे छइ आरिज, प्रतिबोधइ वलि जेह अनारिज ॥ ५७१ ॥ तस पटि श्री जयसोम महायति, मह उवझाय वृहस्पति सम मति। तसु सीसइ ए भाव प्रकास्या, रविकर परि तम दूर प्रणास्या॥ ५७३ ॥ श्रीगुणविनयइ करिय प्रयास, बूझउ जोइ धरि मन आस। तिण थी मतिकीरति सुविलास, वाधइ दिनि दिनि सुख निवास ॥ ५७४ ॥ श्रीखरतरगच्छ समायारी, परकासी हरखइ। शास्त्रभाव देखि उवेखि, आलस उतक रखइ॥ ३५६ ॥ विक्कम थी रस-मुनि-पज्जत्ति-शशि (१६७६) परिमित वरसइ ॥ ३५७ ॥ तिणि गच्छनउ थंभु युगप्रधान जिनराजसूरीसर। तसु राजइ जिनसिंहसूरि पाटइ सोभाकर ॥ ३५९ ॥ तस पटि वाचक श्रीप्रमोदमाणिक संयमवरु ! तसु पटि श्री जयसोम महा उवझाय कलपतरु ॥ ३६०॥ श्री गुणविनयइ तासु सीसि राडिद्रह पुरवरि। श्रीजिनदत्त जिनकुसलसूरि परभावइ सुभ परि॥ ३६१ ॥ ८७. आचार्य जिनराजसूरि-बीकानेर निवासी बोहित्थिरा गोत्रीय श्रेष्ठि धर्मसी के पुत्र थे। माता का नाम धारलदे था। इनका जन्म नाम राजसिंह था। सं० १६५६ मिगसर सुदि ३ को इन्होंने जिनसिंहसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा नाम था राजसमुद्र। इनको सं० १६६८ में उपाध्याय पद जिनचन्द्रसूरि ने प्रदान किया। जिनसिंहसूरि के स्वर्गवास होने पर सं० १६७४ वैशाख शुक्ला ६ को मेड़ता में ये गणनायक आचार्य बने। इसका पट्ट-महोत्सव मेड़ता निवासी चोपडा गोत्रीय संघवी आसकरण ने किया था। अहमदाबाद निवासी संघपति सोमजी कारित शत्रुजय की खरतरवसही में सं० १६७५ वैशाख शुक्ला १३ शुक्रवार को ५०० मूतिर्यों की आपने प्रतिष्ठा की थी। भाणवड तीर्थ के स्थापक भी आप ही थे। सं० १६७७ जेठ वदि ५ को मेड़ता निवासी चोपडा आसकरण कारापित शान्तिनाथ आदि मन्दिरों की आपने प्रतिष्ठा की थी; (देखें, मेरी सम्पादित, 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह प्रथम भाग'); जेसलमेर निवासी भणसाली गोत्रीय संघपति थाहरु शाह कारित, जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ लौद्रवाजी की प्रतिष्ठा भी सं० १६७५ मार्गशीर्ष शुक्ला १२ को आपने ही की थी और आप की ही निश्रा में सं० थाहरु ने शत्रुजय तीर्थ का संघ निकाला था। आपकी प्रतिष्ठापित सैकड़ों मूर्तियाँ आज भी उपलब्ध हैं। सं० १६९९ आषाढ शुक्ला ९ को पाटण में आपका स्वर्गवास हुआ था। आप न्याय, सिद्धान्त और साहित्य के उद्भट विद्वान् थे। आपकी रचित निम्न कृतियाँ प्राप्त हैं१. स्थानांगसूत्र वृत्ति (अप्राप्त, उल्लेख मात्र प्राप्त है) २. नैषध महाकाव्य टीका 'जैनराजी' श्लो० सं० ३६०००, पूर्ण प्रति भा०ओ०रि०इ० पूना में एवं १० सर्ग की प्रति मेरे संग्रह में है। ३. धन्ना शालिभद्ररास र०सं० १६७८ ४. गुणस्थानविचार पार्श्वस्तवन र०सं० १६६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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