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________________ पारम्पर्यमजानातिराम्नाया भावतोऽधिकम्। भ्रामिता ये जनाच्छिद्रग्राहिभिर्वेषधारिभिः॥ ३॥ तानल्पमेधसो भव्यानुग्राह्य यथाक्रमस्। गुरुपर्वक्रमः सोऽयं जयसोमैरिहोच्यते॥४॥ अन्त में प्रशस्ति न होने से इसकी रचना का काल निश्चित नहीं किया जा सकता किन्तु अन्त में "तत्पट्टे श्रीजिनचन्द्रसूरि; रीहड गोत्रीयः" तथा स्वयं के लिये किसी पद का प्रयोग न होने से यह रचना सं० १६४० के आस-पास की मानी जा सकती है। प्रारम्भ में आवश्यक पीठिका, कल्पसूत्र स्थविरावली और नन्दीसूत्र स्थविरावली के आधार पर देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक की परम्परा देते हुए इन्हीं की शाखा-प्रशाखाओं से नि:सृत कृष्णर्षि, ब्रह्माण, हर्षपुर (मलधार), उकेश, कोरंट, चित्रवाल, बृहद्गच्छ की उत्पत्ति दी है। विचारामृतसंग्रह और धर्मरत्नप्रकरण वृत्ति के आधार से तपागच्छ की देवेन्द्रसूरि तक की परम्परा दी है। इसके पश्चात् अनेक पट्टावलियों और अन्यगच्छीय सामाचारी के आधार से सुधर्मस्वामी से लेकर यु० जिनचन्द्रसूरि तक खरतरगच्छ की परम्परा का विशदता के साथ आलेखन किया है और इस गच्छ की शाखाओं की उत्पत्ति के कारण भी दिये हैं। इस पर्वक्रम में कई नवीन ज्ञातव्य बातें लिखी हैं जो मुख्यतया निम्न हैं१. स्वातिसूरि और उमास्वाति एक ही व्यक्ति हैं। २. वर्द्धमानसूरि को 'गाजणादित्रयोदशसुरत्राणछत्रोद्दालक चंद्रावतीनगरीस्थापक' लिखा है। ३. रुद्रपल्लीय खरतरपट्टावली के आधार से अभयदेवसूरि के १० शिष्यों (आचार्यों) से ९ शाखायें हुई हैं-१. कडहट्टिया, २. छत्रावला, ३. डुगरउंचा, ४. महुएचा, ५. अंबासणा, ६. उंबरसेजा, ७. नंदासणा, ८. टिम्बाणिया, ९. धवलक्किया। मूल परम्परा में पट्टधर जिनवल्लभसूरि हुए। साथ ही देवभद्राचार्य को कडहट्टिया शाखा का संस्थापक माना है। ४. जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास सं० १३८५ फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को देवराजपुर में हुआ। पर्वक्रम गद्य एवं पद्य दोनों में लिखित है। पद्य ६३ हैं और अवशेष गद्य संस्कृत है। इसकी प्रतियाँ भांडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्ट्रीटयूट, पूना क्र० नं० ६१७ पत्र २३; केशरियानाथ ज्ञान भंडार, जोधपुर डावडा नं० १५ प्रति नं० १०४ पत्र १२-कुछ हिस्सा गुणविनय गणि लिखित व संशोधित प्रति, तथा अम्बाला ज्ञान भंडार नं० ११२७ पत्र ४ की अपूर्ण प्रति प्राप्त १२. पार्श्वजिनस्तवः-'केवलाक्षरमय'-पद्य ५, इसका आदिपद है-'जनवनवनधर धरणधर'। १३. पार्श्वजिनस्तव:३३–'हारचित्रमय'-पद्य ५, आदि पद-'वन्दे सुभावसु संघकरं शमोकं'। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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