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________________ चित्र-४४: चित्र स्पष्ट है। केवल एक तरफ भस्मीभूत हुए दो साधुओं के श्याम मृतदेह दिखाई दे रहे है। तेजोलेश्या का प्रक्षेप 'प्रवचन-सारोद्धार' ग्रन्थ के कथनानुसार मुख से ही निकालकर सामनेवाले के ऊपर करना होता है। चित्र-४५: इस चित्रमें भगवान सिर्फ सामान्य प्रजा के ही गुरु-देव नहीं थे अपितु छोटे-बड़े राजा-महाराजाओंके वे उपदेशक गुरु-देव थे, यह दिखाया गया है। जनता के ख्याल में यह बात आवे, इस हेतु से यह चित्र विशेष रूपसे तैयार कराया गया है। चित्र-४६: स्वर्णकमल के ऊपर पचासन में स्थित होकर विश्व के प्राणियों के कल्याण के लिये अधिक से अधिक तत्त्वज्ञान और उपदेश देने के लिये १६ प्रहर-४८ घण्टे तक लगातार प्रवचन दिया, वह प्रसंग। दो दिन अन्न-जल रहित उपवास के साथ इतना लम्बा प्रवचन देने का यह उदाहरण लगता है कि इतिहास में (शायद) प्रथम ही होगा। चित्र-४७: अन्तिम यात्रा से पूर्व ही देवों ने भगवान के मृत शरीर को भक्ति-बहुमान के हेतु मुकुट आदि आभूषणों से अलंकृत कर दिया था, यह बताया है। मृतदेह का अग्निसंस्कार चन्दन के काष्ठों से हुआ था। चित्र-४८: यह चित्र केवलज्ञान होने के बाद अशोक वृक्ष के नीचे देवों द्वारा रचित स्वर्णकमल पर पद्मासन से स्थित होकर 'प्रवचन' मुद्रा पूर्वक आद्योपदेश देते हुए तीर्थकर श्री महावीर देव के आध गणघर श्री गौतमस्वामीजी का है। दोनों तरफ केवलज्ञान की महिमा करते हुए देवों को दिखाया गया है। उसके ऊपर के भाग में बाई ओर के कोने में देवशर्मा बाहमण को प्रतिबोध करते हुए गौतमस्वामीजी है और दाये कोने में पीछे लौटते रास्ते में ही भगवान का एकाएक निर्वाण सुनकर चिल्ला चिल्लाकर रोते हुए गौतमस्वामीजी को बताया है। गौतमजी (इन्दभूति) मगध देश के गोबर ग्राम के गौतमगोत्रीय ब्राह्मण वसुभूति के ज्येष्ठ पुत्र थे। श्रमण संघ की सुव्यवस्था के लिये भगवान के अध्यापन विभाग को नौ गणों-विभागों में विभक्त कराया था और उसके ऊपर प्रधान अध्यापक शिष्यों की नियुक्ति की गई थी। वे 'गणघर' पद से अलंकृत होने से उस पद से जाने जाते थे। उसमें गौतम गणधर आद्य थे, ५० वर्ष की उम्र में पावापुरी में दीक्षा लेकर ८२ वे वर्ष में केवली (-सर्वज्ञ) बने। अन्त में एक महीने का अनशन करके ९२ वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त किया। गौतमबुद्ध और गौतमस्वामी दोनों ही सर्वथा भिन्न व्यक्ति है, यह ध्यान में रखाना चाहिए। अन्त में "अंगूठे अमृत बसे, लब्धि तणा भण्डार। श्री गुरु गौतम समरिए, वांछित फल दातार।।" -यहाँ ४८ चित्र का परिचय समाप्त होता है। - जय महावीर २१. गोशालक आजीवकसंप्रदाय का नेता था। उस संप्रदाय के मुनि निर्वस्व रहते थे अथवा विकल्प था? वह निश्चित हो नहीं सका। यहाँ तो सवस्त्र बताया है और देह तेजोलेश्या ग्रस्त बताया है। २२. देखो-द्वार २७० वौँ। २३. मृतक को अलंकृत करने का उल्लेख प्राकृत 'महावीरचरिय' ग्रन्थ में है। यह प्रथा अति प्राचीन काल से चली आती है। २४, गौतमस्वामीजी का नाम तो इन्दभूति था, लेकिन प्राचीनकाल में देश में-गोत्र या गोत्रनाम की बहुत महिमा थी। इस वास्ते गोत्र नाम से ही वे सुविख्यात हुए। परिशिष्ट पिभाग अवतरण-यद्यपि यह पुस्तक चित्रमय जीवन की है, इसलिये इसमें अतिरिक्त परिशिष्ट आदि सामग्री न दी होती, तो भी पर्याप्त था लेकिन वर्तमान प्रजाकी परिस्थितिको लक्ष्य करके तीर्थकर श्रीमहावीरदेव और उनके प्रसंग तथा समय के साथ सम्बन्ध रखनेवाली विशेष जानकारी परिशिष्ट के रूप में दी जाय तो उपयुक्त होगी, ऐसा समझकर कुछेक उपयोगी परिशिष्ट यहाँ दिये गये है। परिशिष्ट सं. १ संपा. मु.यशो वि. +विहारस्थल नाम-कोष भूमिका-इस ग्रन्थ के ४८ चित्रों के सामने दिये गये परिचय के लेख में भगवान के विहार । और चातुर्मास के विषय मे जिन-जिन स्थलों का निर्देश हुआ है. (लगभग) उसी के ही परिचय हेतु यह कोष है। उसमें अनेक स्थलों के वर्तमान स्थान कहाँ है उसकी जानकारी नहीं हो सकी है। कितने ही स्थलों की जानकारी हुई है, उनका उस-उस स्थल पर थोड़ा-बहुत निर्देश कर दिया गया है। 'आलम्भिका - राजगृह नगर से बनारस जाते समय-बीच में आता था। (चौ. ७ वौं) ऋजुवालि(लु) का नदी-इस नदी का स्थान कहाँ माना जाय इसका ठीक निर्णय पुरातत्त्वविद् अद्यावधि नहीं कर सके है। परन्तु जृम्भिकग्राम के पास, श्यामाक नामके किसान के खेत में, साल (शाल) वृक्ष के नीचे, जहाँ भगवान को केवलज्ञान हुआ, उसके समीप था। कनकखल आश्रम-श्वेताम्बिका नगरी के समीप का स्थान। इस आश्रम में ही कर और भयंकर दृष्टिविष चण्डकौशिक सर्प ने भगवान पर उपसर्ग किया था, उसे प्रतिबोध करके भगबान १५ दिन तक वहीं ध्यानस्थ रहे थे। कुमार (कार) गाम-भगवान की जन्मभूमि क्षत्रियकुण्ड के समीप का गाँव। दीक्षा की प्रथम रात्रि में भगवान यही रहे और गोपालने प्रथम उपसर्ग यही किया। काशी-वाराणसी के आस-पास का प्रदेश। यह काशी एक राष्ट्र गिना जाता था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। महावीर के समय में वह कौशल राष्ट्र में मानी जाती थी। कोल्लाक सन्निवेश वाणिज्य गाँव के समीप का गाँव। भगवान ने दीक्षा के दूसरे दिन तप का पारणा यही किया था। * अपापापुरी' -पहले इस नगरी का नाम अपापा-पुरी (पाप रहित नगरी) था, परन्तु भगवानश्री महावीर का देहान्त-निर्वाण होने पर लोगों ने इसका नाम पावापुरी-पापापुरी (पापनगरी) रख दिया। उस समय पावा नामके तीन स्थल थे, अत एव इस पावा को “पावा मध्यमा" नाम से प्रसिद्ध पावा समझना। (चौमासा-४२ वी) • अस्थिकगाम-विदेह जनपद में था, जिसकी सीमा पर शुलपाणि यक्ष का चैत्य था। (चौ. .१) | २. आलम्भिका अथवा आलम्भिया एक ही स्थान के सुचक नाम है, ऐसी विद्वानों की मान्यता + विहार स्थल का चित्र-नकशा प्रथमावृत्ति में देरी लगने से दे नहीं सका, लेकिन इसी आवृत्ति | में देने के लिये प्रयत्नशील हूँ। ३. हमारे लिये यह एक दुर्भाग्य की बात है कि इस स्थान का निर्णय अद्यावधि नहीं हो सका * ऐसा चिह्न भगवान के वर्षावास (चौमासा) के स्थल को सूचित करता है। है, अन्यथा जहाँ भगवान को महान् ज्ञान-प्रकाश मिला हो, उस स्थल को तो भव्य यात्राधाम १. स्थल के नाम मात्र संस्कृत भाषा में ही दिये गये है। यहाँ प्राकृत नाम नहीं दिये गये है।। के रूप में विकसित करना चाहिए। Jain Ecation International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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