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________________ ( ८१ ) . होता है ? सोचने से मालूम हो जायगा कि यदि इधर एक ही सूत्र रखा जाय तो ऐसा अर्थ होगा कि उपशान्तमोह और क्षीणमोहको धर्मध्यान होता है और यदि वे उपशान्तमोह और क्षीणमोह पूर्वश्रुतको धारण करनेवाले होवें तो उन्होंको शुक्लध्यानके आदिके दो ध्यान होते हैं, याने उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीव भी पूर्वके श्रुतके धारण करनेवाले न हों तो उनको न शुक्लध्यान होवे. इधर यह बात तो दोनों फिरकेवालोंको मान्य ही है कि शुक्लध्यानके पेश्तर दो भेदका ध्यान होने बाद ही केवलज्ञान होता है. याने ध्यानान्तरिकामें ही केवलज्ञान होना दोनों मंजूर करते हैं. यह भी बात दोनों मंजूर ही करते हैं कि सामान्यसे अष्टप्रवचनमाताको जाननेवाले त्यागी भी केवलज्ञानको पा सक्ते हैं. अब इन बातोंको समझनेवाले फ़ौरन निश्चय कर सकेंगे कि ये सूत्र अलग ही होने चाहिये. याने दोनों सूत्र अलग करनेसे ऐसा अर्थ होगा कि उपशान्तमोह और क्षीण मोहको धर्मध्यान भी होता है और अन्तिमभागमें शुक्लध्यानके भी आदिके दो भेद होते हैं, और यदि पूर्वश्रुतके धारण करनेवाले और भी याने उपशान्तमोह और क्षीणमोहके सिवाय के अप्रमत्तसंयतादि होवें उनको भी शुक्लध्यानके आदि के दो भेद हो सकते हैं. अब इस तरहसे अर्थ होने में किसी भी तरहका मन्तव्य का विरोध न होगा. इस सबसे मानना चाहिये कि इन दोनों सूत्रोंको श्रीमान्उमा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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