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________________ ( ७८ ) तो यह बात दोनोंने दिखाई है कि आर्त्तध्यान नामक ध्यान अविरत देशविरत और प्रमत्तसंयतको होता है और रौद्रध्याननामक ध्यान देशाविरत और अविरतको होता है. और यह बात दोनोंही फिरकेवाले अपने अपने तत्त्वार्थसूत्र में दर्ज करते हैं, तो फिर धर्मध्यान किस गुणस्थानवालेकों होता है इसका निर्देश क्यों नहीं करना ? सबब साफ होजाता है कि असल में धर्मध्यान के विषय में अप्रमत्तसंयतका निर्देश सूत्रकारने किया था, जिसको दिगम्बरोंने उडा दिया है. 2 . यह बात तो धर्मध्यानके लक्षणवाले सूत्रके विभागके विषय में हुई, आगे के लिये यह सोचनेका है कि अविरतआदिको तो ध्यान दिखाये, लेकिन उससे आगे बढे हुए उपशान्त-कषाय, क्षीणकषायका कौन ध्यान होवे ? उसका तो जिक्र इधर है नहीं इसी सबब से मानना होगा कि सूत्रकारने 'उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' यह सूत्र जरूर बनाया है. एक बात और भी गौर करने के काबिल है कि वाचकजीमहाराजने आर्त्तरौद्र के स्वामी दिखानेके वक्त अविरतादिको दिखाके गुणस्थानके हिसाब से स्वामी दिखाया तो फिर अप्रमत्त मात्रको धर्मध्यानके अधिकारी दिखावे और शेषउपशान्तादिकको न दिखावे यह कैसे हो ? L सूत्रकारने यह सूत्र इधर जरूर बनाया है इसका एक और भी पूर्णतः सबूत है. वह यह है कि यदि इधर यह 'उपशान्त : www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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