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________________ (१८) शंकाएं की जाती हैं. अतः उनमेंसे कितनीक यहां पर दर करने में आती हैं. ये शंकाएं केवल मान्यताके विषयमेंही हैं, किन् पाठभेदके विषयमें तो जो विचार करना है वह इन शंकाओं कों जताने बाद आगे पर करेंगे। । (१) यदि इससूत्रके कर्ता श्वेतांवर नहीं होते तो अवधि और मनःपर्यवज्ञानके भेदमें विशुद्धिआदिमे दोनों ज्ञानका जे फके बतलाया है उसमें अव्वल तो लिंग याने वेदसे फर्क बताना चाहिये था. क्योंकि श्वेतांबरोंके हिसाबसे जैसा अप्रमत्तसाधुको मनापर्यवः ज्ञान होता है वैसा ही अप्रमत्तसाध्वीको भी मनःपर्याय ज्ञान होताही है, अतः श्वेतांबरोंके हिसाबसे दोनोंही वेदवाले अवधि और मनःपर्यवकी योग्यतावाले हैं. इससे उनके हिसाबसे वेदका.फर्क दिखानेकी कोइ आवश्यकता नहीं है, किन्तु दिगंबरोंके हिसाबसे साधुओंको अप्रमत्तता होती है और उनको मन:पर्यवज्ञान भी होता है, लेकिन स्त्रीवेदवाले जीवको साधुपना ही नहीं होता है, तो फिर मनःपर्यवज्ञान तो होवे ही कहां से? जब मनःपर्यवज्ञान. पुरुषवेदवालेकोही होवे और स्त्रीचेवाले. को नहीं होवे तो इस सूत्रमें पुरुषवेदस्वामित्वका फर्क, जरूर दिखाना चाहिये था. क्योंकि अवधिज्ञान तो स्त्रियोंको भी होता है ऐसी दोनों ही संप्रदायोंकी मान्यता है । . दूसरी बात श्वेतांबरी यह भी कहते हैं कि यदि दिगंबरोंके हिसाबसे बायसंसर्गरहितको ही केवलज्ञान होने और मन: Vain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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