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________________ ( १६४ ) इस भाषा से सभी देशवाले श्रोताओं को धर्मका बोध अच्छीतरहसे हो सकता है. संस्कृतभाषा में देशना देने से कतिपय बिद्वानोंकोही बोध मिळ, लेकिन सामान्य जनता तो श्रीजिनेश्वर भगवान के उपदेश से वंचित रहे, और यदि ऐसा होवे तो पीछे श्रीजिनेश्वरमहाराज जगद्गुरु कैसे बनें ?, देवताकी भाषा भी अर्धमागधी ही है. इसका सबब भी यही है कि आबालगोपालको देवताके आराधन की योग्यता है. और देवताको आराधकका भाव समझने की भी जरूरत है. इतनाही नहीं, किन्तु देवताका वार्तालाप यदि संस्कृतमें ही होवे तो आबालगोपाल के साथ तुष्ट होकर वार्तालाप करना या वरदान देना असंभवितही हो जाय. इससे देवताओंकी भाषा भी आबालगोपालकी समझमें आजाय ऐसी अर्धमागधी मानी गई हैं, लेकिन संस्कृत भाषा से विद्वानोंको समझानेकी जरूर गिनकेही श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीने यह सूत्र संस्कृत में ही बनाया है. संस्कृतेतर भाषा ही पूर्वकालमें प्रचलित थी इससे अशोकादिकराजाआदिके प्राचीन लेख भी संस्कृतेतर भाषामें ही है, प्राचीनतम कोईभी शिलालेख संस्कृतभाषामें नहीं हैं, संस्कृतशब्ददी संस्कृतभाषा के असलीपनका इन्कार करता है, क्योंकि कोई भी असली भाषाका संस्कार करके तैयार की हुई भाषाही संस्कृत हो सकती है, और इसीसे ही प्राकृतभाषाको सूगडांगनियुक्तिकार Jain Education International ✓ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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