SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का हानायगा बोटीवारका ससे (१६१) तत्त्वार्थका होना मुनासिबही है, इन सब कारणोंको सोचते स्पष्ट मालूम होजायगा कि वाचकजीमहाराजकी यह रचना अत्यंत आवश्यक है, ऐसी छोटी कृतिसे विद्यार्थियोंको तत्त्वपदार्थों का समझना सहेल होनेसे सूत्रकारका कहा हुवा विस्तृत बयान जानने को तैयार और लायक हो जायंगें. इससे श्रीवाचकजीमहाराजने सूत्रकास्की अवज्ञा नहीं की, किन्तु सूत्रकारमहाराजकी बडीही भक्ति की है. आखिरमें जो आपने कहाकि दिगंबरलोग इसी तत्त्वार्थको मान्य करके सूत्रोंको उडा देते हैं, तो इसमें ऐसाही कहा जायकि आगाढमिथ्यात्वका उदय होजाय और ऐसा करे उसमें श्रीवाचकजीमहाराजका क्या दोष ?, क्या ऐसा तत्वार्थ जैसा ग्रंथ नहीं होता तो वे दिगंबर आगाढमिथ्यात्वी नहीं होते ?, कभी नहीं, तो पीछे इस आगाढमिथ्यात्ववालेका विचारले के वाचकजी पर दोषारोप कैसे किया जायी, इन दिगंबर लोगको तो उत्थापकपन और विपर्यासकारित्व गलेमेंही लगा है. उसमें कोई क्या करेगा?, देखिये ! इन लोगोंने भगवानकी मूर्तिको भी चक्षुहीन कर दी, इतनाही नहीं, बल्के पल्यंकआसनसे बैठने पर किमीभी आदमीका लिंगआदि दृश्य नहीं होता है, तबभी इन दिगंबरोंने पल्यंकासनस्थ भगवत्प्रतिमाको भी हाथके आगे लिंग लगा दिया है, असलमें भगवानका लिंग अदृश्य था, उसकोभी इनोने नहीं सोचा. दिगंबरलोग यह नहीं सोचते हैं कि जब तत्त्वार्थसूत्रको मंजूर करना है तो पीछे श्रीमान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy