SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१५०) ङ पृष्ठ ६६ ' उक्तं भवता नारका इति गति प्रतीत्य यिको भावः । (अ २ सू ६ गतिकषाय. ) च पृष्ठ ७७ ' उक्तं भवता लोकाकाशेवगाहः (५-१२) 'तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्या लोकान्तादिति' (१०५) इस स्थानमें ज्यादा तो ख्याल यह करनेका है के तीसरे अध्यायमें भाष्यकार ' उक्तं भवता' ऐसा कहते हैं, और वे सूत्र तो बहोत आगे आयेंगे, इस बातको सोचनेसे निर्णय हो जायगा के यह 'उक्तं भवता' का प्रयोग भाष्यकी अपेक्षासे नहीं है, किन्तु पेस्तर सूत्रकी रचना अपनेही की है उसकी अपेक्षासे ही है. छ पृष्ठ ८६ ' उक्तं भवता मानुषस्य स्वभावमार्दवार्जवत्वं च' ... ( अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमादेवार्जवं च मानुषस्य अ. ६ सू. १८) . ज पृष्ठ ९२ 'उक्तं भवता भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानामिति' - (भवप्रत्ययो नारकदेवानां (अ १ सू २२) तथौदयि केष भावेषु देवगतिरिति (२-६ गतिकषायेत्यादि ) केवलिश्रुतसंघधर्मदेवार्णवादो दर्शनमोहस्य ( अ. ६ सू. १४) सरागसंयमादयो देवस्य (सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि च देवस्य ( अ. ६ सू २० ), नारकसंमृच्छिनो नपुंसकानि, न देवाः ( अ. २ सू. ५०-५१) . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy