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________________ (१४५) जिधर पुनरुक्तपनसे संकोच किया है वहां स्वयं संकुचितता कर बैठते हैं.. . (४४ ) आठवें अध्यायके १३ वें सूत्रमें दिगम्बरलोग 'दानलाभभोगोपभोगबीर्याणां' ऐसा पाठ मानते हैं. तब श्वेताम्बरलोग 'दानादीनां' इतना ही सूत्र मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कहना है कि श्रीमान्ने दूसरे अध्यायके चौथे सूत्र में ही क्षायिकके भेद गिनाते दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य ये पांचो ही भेद यथाक्रमसे गिनाये हैं. और सूत्रकारकी पद्धतिसे एकवार कहा हुआ दुबारा कहना उचित भी नहीं है. . . . .. (४५) इसी अध्यायके २०वें सूत्र में दिगम्बर 'शेषाणामन्तर्मुहूर्ताः' ऐसा पाठ मानते हैं. तब श्वेताम्बर 'शेषाणामन्तर्मुहूर्त' ऐसा पाठ मानते हैं। श्वेताम्बरोंका कहना है कि अंतर्मुहूर्त यह शब्द अव्ययीभावसे बना होनेसे नपुंसकलिंगका है. इससे अंतर्मुहूर्त ऐसाही होना चाहिये. और सब शेषकोकी जघन्यस्थिति एक एक अंतर्मुहर्तकी होनेसे अन्तमुहूर्तशब्दसे आगे बहुवचन करना विरुद्ध है. कभी ऐसा कहने में आवे कि एकेक कर्मकी अन्तर्मुहूर्त्तकी जघन्यस्थिति होनेसे सब शेषकर्मोकी अपेक्षासे बहुत अन्तर्मुहूर्त होनेसे अन्तर्मुहूर्तशब्दके आगे बहुवचन धरना मुनासिब है, लेकिन यह कहना व्यर्थ है. इसका सबब यह है कि बहोतकर्मोकी अपेक्षासे :स्थिति में बहुवचन माने तो पेश्तर ज्ञानाचरणादिचारकर्मोकी उत्कृष्ठः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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