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________________ (१३३) और 'सागरोपमे' 'अधिके च' ऐसे अलग अलग सूत्र माने है. जिससे न तो उनको अधिक स्थिति लेने में हरज है, और न 'सौधर्मेशानयोः' ऐसा माननेकी जरुर है, इसी तरहसे 'स्थितिः' ऐसा अधिकारसूत्र स्थितिवाचक माना है, और आगे भवनपतिमें दक्षिण और उत्तरइन्द्रों की स्थितिके लिए और शेष वहांके देवोकी स्थितिके लिए स्थितिका अलग अलग सूत्र दिखाया है इससे साफ हो जायगा के श्वेताम्बरोका ही पाठ सच्चा है, __(३१) इसी अध्यायमें सूत्र ३० में दिगम्बरलोक 'सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त' ऐसा पाठ मानते है. अब इस स्थानमें अवल तो अधिकार सूत्र माना होता तो 'सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः' ऐसा नहीं कहना पडता, और कहने परभी दोनों देवलोककी स्थिति सरखी हो जाती है. और इसीसे ही 'स्थितिप्रभाव.' यह सूत्र विरुद्ध हो जाता है. इधर दुसरा भी विरोध आयगा. वो विरोध यह है के सौधर्म और ईशानदेवलोककी जघन्य स्थिति दिखा करके शास्त्रकार महाराज फरमागे के 'परतः परतः पूर्वी पूर्वाऽनन्तरा' याने दुसरे देवलोकसे आगे पेस्तर पेस्तर देवलोककी उत्कृष्ट स्थिति होवे वो आगे आगे देवलोकमें जघन्यस्थिति समजनी. अब इधर तिसरा और चौथा देवलोककी एक सरखी मान ली तो पीछे चौथादेवलोकमें जघन्यस्थिति कहां से लायेंगे ?, तिसरा और चौथा देवलोककी स्थिति सरखी होनेसे इधर ही तीसरे देवलोक में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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