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________________ ( १२४ ) है. इससे इधर तत्र शब्द जरूर ही लेना पडेगा. ( २२ ) इसी अध्यायके सूत्र ३६ में दिगम्बरलोग 'आर्या म्लेच्छाश्च' ऐसा पाठ मानते हैं, जब श्वेताम्बर 'आर्या क्लिशच' ऐसा पाठ मानते हैं. दिगम्बरोंने इधर स्पष्टता के लियेही 'स्लिशथ' के स्थान में 'म्लेच्छाथ' ऐसा कर दिया है. लेकिन इधर अव्वल यह शोचनेका है के म्लेच्छ और आर्य शब्द परस्पर विपरीत है, लेकिन आर्यशब्द निरुक्तिसे हुवा है और म्लेच्छशब्द म्लेच्छधातुसेही बना है, इससे धातुसे बना हुवा शब्दको प्रधान पद दिया जाय यही यथार्थ है और जब धातुसेद्दी होने वाला म्लेच्छशब्द लेंगे तो कर्त्ता में किपू प्रत्यय लगाके ग्लिश ऐसाही शब्द बनाना होगा, और इसकी यह मतलब होगा कि अव्यक्त भाषा बोलने वाले ग्लिश होते है, और जो वैसे नहीं है वे आर्य है, इससे यह भी साफ होगा कि इधर ब्राह्मीलिवि और अर्धमागधी भाषाका जहां जहां प्रचार नहीं वे ग्लिश कहे जाय, और जिहां उनोका प्रचार होगया वे आर्य है. इस हेतुसे इधर ग्लिशशब्दही कहना लाजिम गिना गया है. 4. ( २३ ) सूत्र ३८ में 'परापरे' ऐसा उत्कृष्ट और जघन्य ऐसी मनुष्य व तिर्यचकी स्थिति दिखानेका सूत्र था. वहां इन दिगम्बरौने 'परावरे' ऐसा कर दिया है, क्योंकि शाखकार तो जहां पर भी जघन्यस्थितिका अधिकार लेते हैं वहां Jain Education International : For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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