SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . . नहीं था, किन्तु 'पूर्वप्रयोगासंमत्वबंधच्छेदतथागतिपरिणाश्वकालाब्वेरण्डाग्निशिखावद्' इतना ही कहना लाजिम था. 'क्योंकि यथासंख्यपनसे हेतुदृष्टान्तोका समन्वय और सोपस्कार ही सूत्र होनेके नियमसे यथार्थ व्याख्या हो जाती. - इस स्थानमें श्वेताम्बरोंके हिसाबसे 'पूर्वप्रयोगादित्यादि मैं हरएक पद पर पंचमीका प्रयोग क्यों किया गया है ? यह 'भी सोचनेका ही है. वे श्वेताम्बरलोग उस सूत्र में आखिरमें "तगतिः ऐसा पद मानते हैं. और उसकी हयाती होनेकी 'जरूरत यों मानते हैं कि आगेके याने चतुर्थसूत्रमें 'गच्छत्यालोकान्तात्' इस स्थानमें गतिका अधिकार आगया है और पर भी गति ही पूर्वप्रयोगादिकसे सिद्ध करनी है तो फिर 'तनतिः' यह पद लेनेकी कुछ जरूरत नहीं थी. लेकिन इधर जी तहतिः' पद सूत्रकारने लिया है इसका मायना यह है कि सिद्धमहाराजकी कर्मक्षय होनेसे अचिन्त्यपनसे गति होती है, और उस गतिके सघवको अपन नहीं जान सकते हैं तथापि यह समाधान श्रद्धानुसारि सज्जनोंके लिये ही उपयोगी होगा, लेकिन तर्कानुसारियों के लिये सबब दिखानेकी जरूरत है ऐसा मानकर यह सूत्र बनाया है. और इधर तानुसारीके लिये हेतु दिखानेको सभी हेतु अलग अलग दिखाये हैं. क्योंकि कोई किस हेतुसे समझे और कोई किस हेतुसे समझे, इसीसे ही तो एकहतुके प्रयोग पर दूसरे आदि हेतु करने पर भी दूषण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy