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________________ समय देशना - हिन्दी ५१ निमित्त बन गया, पर जब ये सिंह की पर्याय में था, तब मैंने इसे इसी गुफा में जलाया था। जब केवली की वाणी को कपिल ब्राह्मण ने सुना, और सिर टेक दिया, तो उसका मिथ्यात्व विगलित हो गया और सम्यक्त्व को प्रगट कर लिया। "न मे शत्रुः न च मे प्रियः" किसको कहूँ शत्रु, किसको कहूँ प्रिय ? दोनों से कर्म बंधे हैं, दोनों ही संसार के साधन हैं। सुकृत का विपाक ये भोग दिला रहा है और दुष्कृत का विपाकं रोग दिला रहा है, पर दोनों रोग ही हैं। भोग भी रोग है। "भोगारोगाइवापदि" भोग रोग के तुल्य है, आपत्ति का घर है। इसलिए ध्यान दो। इन्द्रियों की प्राप्ति होना दीर्घ संसार नहीं है, इन्द्रियों की प्राप्ति में मस्त हो जाना संसार है। अब चलिये समयसार पर। इन्द्रियों की प्राप्ति संसार नहीं, क्लेश की प्राप्ति बन्ध नहीं, इन्द्रियों और क्लेष में हर्ष-विषाद करना, वह बन्ध और संसार है । इन्द्रियाँ तो तीर्थंकर को भी मिलती हैं । जब तक पाँचों इन्द्रियाँ सशक्त नहीं होंगी, तब तक जितेन्द्रिय कैसे होंगे ? इन्द्रियों को कुचलकर मुनि नहीं बना जाता, इन्द्रियों का उपशमन करके मुनि बना जाता है। प्रश्न कियाआचार्य श्री ! आज इतनी सहन करने की सामर्थ्य कहाँ है मुनि बनने के लिए ? जब घर में संतान होता है, जन्म भी होता है, मरण भी होता है, तो उस सुख-दुःख को सहन करने की सामर्थ्य कैसे आ गई ? जब शादी हुई थी, तब विचार नहीं बना था, कि संतान होगी तो मृत्यु भी होगी? फिर कैसे धैर्य आ गया, आपको मालूम ही नहीं होगा। आप तो चन्द्रमुखी लेने गये थे, पर घर में आकर ज्वालामुखी बन गई, उसे कैसे झेल रहे हो? धन्य हो आपकी सामर्थ्य को। हे ज्ञानी ! तेरी ज्वालामुखी की ज्वाला से कम ज्वाला है, ये ज्वाला नहीं है, यह चिन्तन की अग्नि है। इससे तो ऊष्मा चमकती है। धैर्य चाहिये, गंभीरता चाहिये और तत्त्व का निर्णय चाहिए । मूल बात पकड़िये। ज्ञान का उतावलापन व्यक्ति को भ्रमित करता है और जीव सोचता है, कि मैं शास्त्र-ज्ञान से ज्ञानी हो गया, लेकिन वास्तव में तू अज्ञानी रहा, क्योंकि तुझे देव-गुरु-धर्म की चिन्ता नहीं है। तू ज्ञानी था कहाँ ? ज्ञान का उतावलापन, ज्ञान का उपयोग यदि भेदज्ञान में होता है तो वीतरागता का जन्म होता है। ज्ञान का प्रयोग जब विषयान्धता में होता है, तो संसार का कारण बनता है। 'समयसार' जैसे ग्रन्थ को भी उतावलेपन में नहीं समझना, नहीं तो यह समझ बैठो कि अब तो मैं ज्ञानी हो गया। ये शब्दों का ज्ञान है, वो ब्रह्मज्ञान है । ब्रह्मज्ञान जब होता है तो वाह्य निमित्त कुछ भी नहीं कर पाते। पूर्णत: मैं अनुभव की कसौटी पर बोल रहा हूँ। अन्दर का निर्णय जिस दिन हो जाता है, उस दिन कितनी भी दुर्घटनाएँ घट जायें, तब भी लगता है कि ये तो जगत का स्वभाव है, नया कुछ भी नहीं है । मैं आपको बता नहीं सकता, तत्त्व के निर्णय में कितनी कठोरता आती है। कभी बिलखते लोग दिखते हैं, तो कभी आग उगलते लोग दिखते हैं। तब भी बिलखनेवाला सत्य नहीं है, अग्नि उगलनेवाला भी सत्य नहीं है । एक का राग रो रहा है, एक का द्वेष, अग्नि उगल रहा है। ये दोनों भगवान् आत्माएँ हैं। इसका राग उपशमित हो जायेगा, तो बिलखना समाप्त हो जायेगा। इसका द्वेष उपशमित हो जायेगा, तो अग्नि उगलना बन्द कर देगा। वही नमोस्तु कहेगा, क्योंकि दोनों भगवान्-आत्मा हैं। अनुभव करो, जिसने अग्नि लगाई थी, उसने शीश झुकाया कि नहीं? जिसने गोदी में खिलाया था, उसने बेटे के पेट को खाया कि नहीं? माँ सहदेवी का जीव, ही खा गई । जो राग था, वो द्वेष में बदल गया; जो द्वेष था. वह भक्ति में बदल गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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