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________________ २४ समय देशना - हिन्दी हों, ऐसे विदिशा के किले के मंदिर में इस ग्रंथ की वाचना हुई। ध्रुव सत्य है, जब सभी मुमुक्षु वहाँ विराजते हों तो श्रोता को देखकर वक्ता की परिणति वैसी बनती है। समयसार की वाचना ,योग का विषय योगियों के बीच में से विद्वानों के बीच में जाता तो आज समयसार के पीछे विसंवाद न होता। योग का विषय योगियों की धारा से होकर निकलना चाहिए था। योग का विषय भोग में मिश्रित नहीं हो सकता है। ये योगी की भाषा है। 'तारणतरणस्वामी' का ग्रन्थ है "ज्ञानसार समुच्चय ।" तारणतरण समाज ने भी विदिशा में हमें निमंत्रण दिया। "समैयासमाज" के विद्वानों के मुख से निकला 'योगियों की भाषा आज योगी के मुख से सुनने को मिली है। हम तो व्यर्थ में विसंवाद में पड़े हैं, तत्त्व तो ये है। तो विश्वास रखो कि वस्तुस्वरूप तो अपने आप में ध्रुव सत्य है, लेकिन प्रतिपादन करनेवाले की शैली अपनी होती है। अपनी शैली में तुम क्या कह गये, ये बाद में सोचते हैं। इसलिए श्रोता कैसे ही हों, पर वक्ता को परिपूर्ण नय, न्याय से सुसज्जित होना चाहिये। विश्वास रखो, गुझियाँ तो मावे की बनती है, पर आकृति वैसी आती है जैसा साँचा होता है। ज्ञानी ! साँचासाँचा है। खाने में आनंद दे वह विषय अलग है, देखने में आनंद आना चाहिए। साँचा साँचा होना चाहिए और साँचा ही साँचा नहीं है तो गुझिया कैसे बनेगी? इसलिए, मनीषियो! ये ध्रुव आत्मा साँची है, तो साँची बात को कहनेवाला हृदय भी साँचा ही चाहिए। वक्ताओं को सुरक्षित कीजिए और साँचे वक्ता को बना के चलो। परन्तु वक्ता वही करुणाशील है, जो उभयपक्ष का कथन करें। मिथ्या समूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः । निरपेक्षनया मिथ्यासापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत॥१०८|आप्तमीमांसा मिथ्या का समूह मिथ्या है। जो सापेक्ष कथन है, वह वस्तु के अर्थ, क्रिया, कारक को कह सकता है, और जो निरपेक्ष है, उसमें वस्तु की अर्थ, क्रिया, कारक बनता नहीं है। 'आप्त मीमांसा' ग्रन्थ में अमृत है। जब भी नियोग बने, तब उस पर प्रवचन या सामूहिक उपदेश होना चाहिए। चैतन्य कभी चैतन्य से भिन्न होता नहीं। चैतन्य का उत्पाद-व्यय चैतन्य में ही होता है 'अनुस्यूत' रूप है, जो नित्य प्रकाशमान है। जाज्वल्यमान है आत्मा। किंचित भी पुद्गल की चर्चा नहीं चल रही है। इतना ही समझना, जैसे कि मशीन के माध्यम से आज दुग्ध में कितना पानी है, यह ज्ञान हो जाता है। दुग्ध,दुग्ध सार, सार नजर आता है। ऐसे ही समयसार कह रहा है कि आत्मा में कितना कर्म का नीर है, उसे भिन्न करके निहारो। आत्मा तो चिद्रूप मात्र ही है। कैसी है आत्मा? इस आत्मा का दृशीज्ञप्ति स्वभाव है। स्वभाव है यानी ज्ञान-दर्शन स्वभाव है। दृशी यानी दर्शन-ज्ञानादि । ज्ञानियो ! जिनवाणी के रहस्यों को समझना है तो मेहनत तो करना पड़ेगी, लेकिन बाद में बड़ा आनंद आता है। जितनी मेहनत आज कर लोगे, भविष्य उतना ही आनंदित होगा। आत्मा कैसी है ? 'स्वपराकारभासन' ज्ञान-भासन है । ज्ञान साकार होता है, इसलिए भासन शब्द का प्रयोग किया है । यह आत्मा उत्पाद-व्यय रूप होने पर भी इससे भिन्न विशिष्ट है । गति, स्थिति, अवगाहना और वर्तना आदि में जो सहकारी कारण है, इन सबसे भिन्न (असाधारण) आत्मद्रव्य है। इनसे जो भिन्न द्रव्य हैं, वे चिद्रूप नहीं हैं , अचेतन हैं । आत्मा चिद्रूप है। ___ आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल काल द्रव्य से आत्मा अत्यन्त भिन्न है और अनंतद्रव्यों के मध्य में रहते हुए भी, अनंत आकाश में एकसाथ निवास करते हुए भी, अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता है । अनंत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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