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________________ समय देशना - हिन्दी ३१२ आत्मानुभूति है उसका भी निषेध मत करना और वह आत्मानुभूति स्वानुभूति से ही है, उसका भी निषेध नहीं करना। लेकिन आज जो विषय यहाँ आ रहा है, शुद्धोपयोग रूप, उसे वहाँ मत लगाना । आचार्य ब्रह्मदेव सूरि ने परमात्म प्रकाश ग्रन्थ की टीका में स्पष्ट लिखा है भरत, पाण्डव, सगर आदि महामुनियों ने गृहस्थ अवस्था में शुद्धोपयोग की भावना भाई । भावना भावरूप है, शुद्धोपयोग नहीं है। आप सभी को रत्नत्रय की भावना नहीं है क्या ? आप तभी सम्यग्दृष्टि हो, जब आपको भावनात्मक रत्नत्रय है, और भावनात्मक रत्नत्रय नहीं तो सम्यग्दर्शन किसका ? किसके लिए ? लेकिन भाव रत्नत्रय नहीं है, तो वह रत्नत्रय ज्ञानात्मक जाननरूप, और उस जानन का अनुभवरूप है। मिश्री का ज्ञान है तो ज्ञान की अनुभूति ज्ञानरूप होगी कि नहीं ? अनुभवरूप ज्ञानानुभूति भिन्न है। भूख लगती है, तो रोटी का भी स्वाद चिन्तन में आता है। लेकिन वह स्वाद, जो चिन्तन में रोटी का है, वह चित्त को प्रसन्न नहीं करता, जो पेट में रोटी का जाने वाला करता है। ज्ञानानुभूति भी दो प्रकार की हो रही है । एक ज्ञानानुभूति ज्ञेय को जानन रूप अनुभूति, और दूसरे ज्ञेय को चखनेरूप अनुभूति । जैसे किसी से कहा, कि अट्ठाइस मूलगुण का स्वरूप ऐसा है । तो बताओ आपको वीतरागी मुनियों के स्वरूप का ज्ञान है, कि नहीं है ? वह ज्ञानानुभूति आपके अन्दर है, कि नहीं? है न ? पर मुनिराज की प्रवृत्ति की अनुभूति कैसी है, वह तुझे अनुभूति है क्या ? नहीं है। यह आपकी प्रत्यक्षानुभूति ज्ञानानुभूति नहीं है । यह आपकी परोक्षानुभूति है। परोक्षानुभूति दो प्रकार की हो गई है। एक परोक्ष में परोक्षानुभूति दूसरी परोक्ष में जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्षानुभूति, जो अनुभव में आ रही है, वह परोक्षानुभूति। __जो मति-श्रुत ज्ञान है, वह परोक्ष ज्ञान है 'आद्येपरोक्षम्' । सिद्धान्तशास्त्र की अपेक्षा जो शुद्धोपयोग है सप्तम आदि गुण स्थान में, वह परोक्ष ही है। ये परोक्षानुभूति क्यों कहीं? क्योंकि सिद्धान्त 'आद्येपरोक्षम् कह रहा है, और बिना मति श्रुत ज्ञान के शुद्धोपयोग की दशा होती नहीं। केवलज्ञान में शुद्धोपयोग नहीं होता, केवलज्ञान में शुद्धोपयोग का फल होता है। आचार्य जयसेन स्वामी के अनुसार प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में तारतम्य से अशुभोपयोग, चतुर्थ से छठे गुणस्थान में तारतम्य से शुभोपयोग, सातवें से बारहवें तक तारतम्य से शुद्धोपयोग, यह चारित्ररूप शुद्धोपयोग है । लेकिन 'उपयोगो लक्षणम्' सूत्र जो उपयोग कहेगा न, तो वह शुद्धोपयोग तेरहवें गुणस्थान में ही बनता है । वह कौन-सा शुद्धोपयोग ? शुद्धज्ञान, शुद्धदर्शन ? 'उपयोगोलक्षणं' यानी केवलज्ञान, केवलदर्शन । शुद्धोपयोग के दो भेद हैं एक परिणती रूप, दूसरा जीव का लक्षणरूप। परिणतिरूप शुद्धोपयोग सप्तम से बारहवें गुणस्थान तक है लेकिन उपयोग रूप जो शुद्धोपयोग है वह जीव का लक्षणात्मक, है जो कि तेरहवें से प्रारंभ होता है, चौदहवें तक और सिद्धों के होता है। लब्धिरूप तो निगोदिया में भी सब कुछ होता है। लब्धिरूप, उपयोगरूप, लक्षणरूप। एक उपयोग है, भावन्द्रिय । जो परोक्षानुभूति है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । यह आचार्य अकलंक स्वामी की कृपा है, जिन्होंने सांव्यवहारिक का कथन किया आचार्य माणिक्यनंदि स्वामी ने स्पष्ट लिखा है 'अकलंक महोदधि। यह सूत्र अकलंक महासागर से निकल कर आया है । बारहवें गुणस्थान तक न्यायशास्त्र की अपेक्षा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना, सिद्धान्त से परोक्ष कहना, अध्यात्म से फिर प्रत्यक्ष कहना । अध्यात्म शास्त्र आपसे प्रश्न करेगा। जिसे सिद्धान्तशास्त्र परोक्षानुभुति कह रहा है, उसे अध्यात्म प्रत्यक्षानुभूति कह रहा है । 'परमात्म प्रकाश ग्रन्थ में शिष्य ने प्रश्न किया भन्ते ! आप बार-बार प्रत्यक्षानुभूति शुद्धात्मानुभूति का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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