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________________ ३०८ समय देशना - हिन्दी यदि कुछ है, तो एकत्व विभक्त भगवती स्वरूप को समझना है। आत्मा ही ज्ञान है, ज्ञान ही आत्मा है, यह पहले समझ चुके हैं। सम्वेदस्वभाव आत्मा का त्रैकालिक स्वभाव है । वह सम्वेद भाव जैसा ज्ञेय होगा, वैसा होगा । ज्ञेय जैसा होगा ज्ञान वैसा होगा । परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो ||८|| प्रवचनसार | इस गाथा को जीवन में कभी नहीं छोड़ना । कोई यूँ कहे, कि मैं पर्याय से भोग भोग रहा हूँ, परिणति तो शुद्ध है तो इस तत्त्व का विपर्यास करके आत्मा में कार्य-कारण का विपर्यास मत कर। बिना परिणति के पर्याय भोग होता ही नहीं। आप कहें, कि जो अशुभ भोग चल रहे हैं, यह तो बहिरंग परिणति है, मेरे अन्तरंग में तो मेरी ज्ञान की धारा चल रही है। तो यह सत्य नहीं है । क्यों ? इसलिए ध्रुव सत्य नहीं है कि जिस काल में जैसी परिणति होगी, उस काल में आत्मा की वैसी दशा होगी, शुभ उपयोग रूप क्रिया होगी, तो आत्मा शुभ होगी, और अशुभ उपयोग रूप क्रिया होगी, तो आत्मा अशुभ होगी, तथा शुद्ध रूप प्रवृत्ति होगी, तो आत्मा की दशा भी शुद्ध होगी। बाहरी क्रियाकाण्ड शुभ होने पर अशुभ प्रवृत्ति हो सकती है । परन्तु जिसकी शुभ प्रवृत्ति अंतरंग की होगी, वह बहिरंग में अशुभ हो ही नहीं सकता । बहिरंग निर्मल हो, और अन्तरंग निर्मल हो, तो भजनीय है । जिसका अन्तरंग निर्मल है, उसका बहिरंग निर्मल नियम से होगा । बहिरंग परिग्रह होगा तो अन्तरंग परिग्रह नियम से है, यहाँ परिग्रह की बात कर रहे हैं । अन्तरंग परिग्रह है, तो बहिरंग हो या न हो कोई नियम नहीं है। श्मसान घाट पर भी शुद्धानुभूति होती है, श्मसान घाट में बैठने में दोष नहीं है, पर मन श्मसान नहीं होना चाहिए। बाहरी वातावरण से परिवार का क्लेश चल रहा है, पर आप उस परिवार के उस वातावरण में कितने सहयोगी हैं। यह देखना पड़ेगा। पर्याय के सम्बन्धों को गौण कर दीजिए पिताजी ने बेटे के गाल पर चांटा मारा इस दृष्टि से संतान मेरी है। तू पर्याय की दृष्टि से संतान कह ले, पर यह सत्य है, कि जीवद्रव्य तेरा नहीं है। तू चिद्रूप है, तूने एक भगवती आत्मा का अविनय किया है । कषायिक भाव आ गया, विश्वास रखना, वही भविष्य का शत्रु होगा। संगो में सगों को मत खोजा करो। जितने भी उपसर्ग हुए, वह गैरों ने नहीं किये, अपनों ही ने किये । जैसे, पर के बीच संभल कर रह रहे थे, वैसे अपनों के बीच संभल कर रहा करो। शुद्धात्म भाव के लिए सभी शत्रु हैं। द्रव्यदृष्टि द्रव्यानुयोग पर उपयोग आपका है। अब तो संयोगी के साथ सम्भल कर रहना । संयोगी को किंचित भी स्वभाव मान कर मत रहना । अब तो मिलने की शैली बदल जाये आपकी । वृद्ध अवस्था है, मुनि नहीं बन पा रहे हो, मैं आपको टेंशन (तनाव) नहीं देता, लेकिन मुनि तन से बन पायें, या न बन पायें, परन्तु मुनिरूप मन बना कर चलना । सबके साथ रहकर ही सबके बीच नहीं हरना । चर्या का मुनि नहीं बन पाये, तो कम-से-कम मुनि- -मन का मुनि तो बना कर रखना। चौबीस घण्टे बना कर रखना। सब के बीच रहकर भी दृष्टि यही रखना, कि इनका मेरा अत्यन्ताभाव है । 'शुद्धोऽहम् बुद्धोऽहं' ये शब्द सरल हैं, लेकिन सबसे कठिन वस्तु का धर्म है, पृथक् स्वरूपोऽहं, एकत्वविभक्त स्वरूपोऽहं । यदि अभ्यास करना हो तो आज 'ही शुरु कर देना । पृथकत्व स्वरूपोऽहं शब्दों में नहीं, अन्दर में प्रवेश कर जाओ। जैनदर्शन की मूल साधना, जिसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता, पृथकत्व स्वरूपोऽहं के बिना, सम्यक्त्व नहीं होता। जिसे मैं पृथक्त्व कह रहा हूँ, उसे भेदविज्ञान कहिए । आत्मा का स्वभाव, परभाव से भिन्न भाव है । मैं सबसे भिन्न हूँ, गहराई चाहिए । संयोग-वियोग में हर्ष - विषाद मत करना। किसी जीव की असादना नहीं करना । पर उसका साथ अपना मान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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