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________________ समय देशना - हिन्दी इससे बड़ा राग क्या होगा ? जैन सिद्धान्त को अनेक विधाओं के द्वारा प्ररूपित करके आप समझ पाओगे, मैं कह रहा हूँ, आप अनुभव करो। फिर भी नहीं छोड़ रहा है, रसना इन्द्रिय का विषय बना रहा है। सही जो था वह आपक स्वरूप ही था, पर आपने अपना स्वरूप खोकर पररूप निहारते-निहारते नयनों में नीर, मुख में लार, नाक में मल और हृदय जलन भी पड़ रही है, फिर भी नहीं छोड़ रहा है। मिर्च को मिर्च ही मत समझना । पाँचों इन्द्रियों का विषय बनाइये । यह तो दृष्टान्त मात्र है। जिस विषय का आप भोग कर रहे हैं, उसमें विषाद तो आता है, अनुभूत होने के बाद पश्चाताप होता है, इसके उपरान्त पुण्य क्षीण होते भी दिखाई देता है, शरीर भी कृश होते नजर आ रहा है, मस्तिष्क भी क्षीण हो रहा है, फिर भी पाप की कषायें बन्द नहीं हो रही हैं । कषायें का भी भोग होता है, फिर कषायों का भोग परवस्तु का भोग कराता है, और परवस्तु के भोग से पापास्रव होता है। पापास्रव में जो कर्म-आश्रव हुआ, फिर यह आत्मा अभिनव कर्म को भोगता है, उसके भोगने में फिर संक्लेष करता है, तो नवीन कर्म आते हैं। कर्म से कर्म, गति से गति, इन्द्रियों से इन्द्रियाँ । आज यहाँ की महिलाओं ने अनन्तानुबन्धी कषाय का त्याग किया है। लोग खाने-पीने की वस्तु का त्याग करते हैं, पर यहाँ की महिलाओं ने लम्बे समय तक कषाय नहीं करेंगे ऐसा संकल्प लिया है। बहुत से लोग ऐसे हैं जो पाप नहीं मानते । कोई व्यापार कहता है पाप को, कोई जीवन कहता है पाप को । पूछो महिलाओं से, ये मायाचारी कर लेती हैं, तो कहती हैं, कि इस पर्याय का स्वभाव है। ऐसा नहीं कहती कि धिक्कार हो जो मैंने मायाचारी की । न कि ऐसा सोचना चाहिए कि हमारी जाति का स्वभाव है । भले जाति का स्वभाव हो, पर उसे पाप मानिए । छल तो छल ही होगा । ग्लास अधिक भरा था पानी से, और जिस स्थान पर आप बैठे थे वह सूखा स्थान था, अधिक भरा होने से छलक गया, आप संतुष्टि कर रहे थे कि अधिक भरा था इसलिए छलक गया । यह शब्द क्यों आया ? क्योंकि कोई कहने न लगे कि पानी क्यों गिरा दिया ? अरे ! चाहे अधिक भरा हो तब छलके, चाहे कम भरा हो तब छलके, पर भूमि तो गीली हुई है । लगाइए सिद्धान्त, भूमि तो गीली हुई है। चाहे आपको पर-निमित्त से कषाय आ रही हो, चाहे स्वनिमित्त से आ रही हो, चाहे पर-निमित्त से पाप कर रहे हो, चाहे स्वनिमित्त से पाप कर रहे हो, लेकिन आत्मा की भूमि कर्मों से गीली हुई है, उसे सुखाना ही पड़ेगा । इसलिए विशेषण जो है अभूतार्थ है, क्योंकि आप पुरुष हैं। आपको मालूम नहीं है क्या ? मैंने कहा पंडित जी है। इस विशेषण ने मालूम क्या किया ? आपने मुझे पीछे क्यों बैठाया, मैं तो विद्वान था ना ? इस विशेषण ने तेरी सहजता को खो डाला । धनी, निर्धन, स्त्री, पुरुष, ये सब पर्याय के विशेषण हैं । 'अस्ति पुरुषचिदात्मा' तू पुरुष को देखेगा तो एकत्व भाव दिखेगा और नानारूप डॉक्टर, इंजीनियर, वकील को निहारेगा तो राग-द्वेष खड़ा हो जायेगा । यह है ध्यान का विषय । त्रैकालिक अस्तित्व मुनिपने का है, तेरा है, तो तू मुनिपने से मोक्ष जायेगा, कि अपने अस्तित्व से मोक्ष जायेगा ? मुनिराज से कह रहे हैं। यह मुनिराज ये प्रवृत्ति तो पर से हटने की थी । मुनिवेश भी तेरा स्वरूप नहीं है, वह भी पररूप है, इसमें भी विशेषण जोड़ कर चलेगा, तो पर जीवों में तुझे हीनभाव दिखेगा, और निज में गौरवभाव आयेगा, गौरवभाव गारव-भाव है, गारव यानी गर्व है । हे योगीश्वर ! तेरा जो अस्तित्व धर्म है वह त्रैकालिक है । आश्रय मुनिपर्याय नहीं होगा, मुनिपर्याय में आश्रय आत्मद्रव्य का होगा, मुनिपर्याय का आश्रय तेरे ध्यान को भंग कर देगा। मैं मुनि इसलिए हूँ कि पापों मौन हूँ। मुनि पापों से बात नहीं करता । Jain Education International For Personal & Private Use Only २६२ www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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