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________________ समय देशना - हिन्दी १६६ जो है, वह अपने आप में अद्वैत है। इसलिए अनुभूति अवक्तव्य है, वक्तव्य-अवक्तव्य नहीं है। वक्तव्य - अवक्तव्य हो जायेगा, तो वक्तव्य नहीं होगा । अवक्तव्य जो भंग है वह भी वक्तव्य है। किससे? अवक्तव्य से । स्याद अवक्तव्य। अवक्तव्य भी अस्ति है, वक्तव्य भी अस्ति है । यदि अवक्तव्य में नास्ति है । तो वक्तव्य भी नास्ति है। 'प्रवचनसार' जी का द्वितीय अधिकार प्रज्ञा को बहुत पैनी करने वाला है। 'प्रवचनसार' का ज्ञेय अधिकार विद्वानों के लिए परम उपादेयभूत है प्रज्ञा की प्रशस्ता के लिए । तत्त्व का नैयायिक दृष्टि से कैसे कथन किया जाये, तो 'प्रवचनसार' जी का ज्ञेय अधिकार है। इसलिए - नाऽवक्तव्यः स्वरूपाद्यैर्निर्वाच्यः परभावतः । तस्मान्नेकान्ततो वाच्यो नापि वाचामगोचरः ॥७ स्वरूप संबोधन ॥ स्वरूप आदि की अपेक्षा से द्रव्य अवक्तव्य नहीं है। स्वरूप स्वचतुष्टय से आत्मा अवक्तव्य नहीं है । पररूप चतुष्टय से वक्तव्य नहीं है, अवक्तव्य है । इसलिए अनेकान्त से बोलना चाहिए । आत्मा स्याद्वक्तव्य, स्यादअवक्तव्य है। जब-तक कदम न रखा जाये, तब-तक पर का हस्तावलम्बन लेते रहना । स्व का पाद स्थिर हो जाये, तो पर का पाद छोड़ देना । जब तक निश्चय में स्थिरता नहीं आती, तब तक व्यवहार का आलम्बन लेना । जब निश्चय में स्थिरता आ जाये, तो अपने में स्थिर हो जाना, तब व्यवहार छूट ही जायेगा। अब पूज्यपाद स्वामी की भाषा में कहें । सबसे पहले ज्ञानी बनने की बात नहीं करना । ज्ञानी नहीं, पहले व्रती बनना । क्योंकि अव्रतीपन से आस्रव होता है अधिक । लाभदृष्टि निहारिये, ज्ञानदृष्टि नहीं। मोक्षमार्गी तत्त्वज्ञान-दृष्टि तो देखता है, मोक्षमार्गी तत्त्वलाभ भी दृष्टि देखता है । पक्ष दोनों प्रबल हैं। मोक्षमार्गी यह नहीं देखता कि ज्ञान मेरा कितना बढ़ा है। मोक्षमार्गी यह देखता है कि आस्रव कितना कम हुआ। अब आपको बात भूतार्थ लग रही है। मोक्षमार्गी यह नहीं देखता, कि मेरी ऋद्धि कितनी बढ़ी। वह यह देखता है कि मेरी ऋद्धि कितनी कम हुई ।वह यह नहीं देखता कि मेरी प्रसिद्धि कितनी हुई। मोक्षमार्गी यह देखता है कि मेरे कल्याण की सिद्धि कितनी हुई। आप लेखा-जोखा बनाते हो, तो उसमें लाभ-हानि देखते हो। जहाँ लाभ दिखता है, पुरुषार्थ वहाँ बढ़ता है। जहाँ हानि दिखती है, वहाँ का पुरुषार्थ कम हो जाता है। यदि हमारे ज्ञान से मद बढ़ रहा है, तो उस ज्ञान की चर्चा को गौण करके सामायिक को बढ़ायेंगे। जिस चर्चा से विशुद्धि में कमी आ रही हो, उस चर्चा को शीघ्र विराम करना, और जिस चर्चा से विशुद्धि बढ़ रही है, उस चर्चा को आगे बढ़ाना, और जिस चर्चा से विशुद्धि घट रही है, उसे बीच में ही रोक देना। हमारा आपसे विरोध नहीं है। मेरा लक्ष्य भिन्न है, आपका लक्ष्य भिन्न है। दो त्यागियों से चर्चा हुई। उनकी चर्चा भी उनके लायक थी। प्रश्न यही आया कि आप भी उस ओर कदम बढ़ाओ जमाने के अनुसार। एक ही उत्तर था आप जिस लक्ष्य को निर्धारित कर चुके हो, इसलिए आप लक्ष्य पर चलो। लक्ष्य के अनुसार सिद्धि करना तो ठीक है, पर स्वात्मोपलब्धि सिद्धि की दृष्टि है, तो मैं आपके लक्ष्य पर नहीं चल पाऊँगा। एक सज्जन आये, कहा कि मैं आपके नाम का तीर्थ बनाना चाहता हूँ। मैंने कहा कि तू मेरे नाम का तीर्थ बनायेगा तो वर्षों लग जायेंगे। पर मैं आज ही तीर्थ हूँ, तू क्यों बनाना चाहता है ? अन्दर का तीर्थ तो हमारा हमें ही दिखता है। आप बाहर का ही तीर्थ देखते हो। ये तन हमारा बाहर का तीर्थ है और चेतन हमारा अन्दर का तीर्थ है। मेरे पास दोनों तीर्थ हैं । आप बनाओगे, मैं देख पाऊँ या न देख पाऊँ। तो जो गुरु ने तीर्थ दिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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