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________________ समय देशना - हिन्दी पर 'गदिं पत्ते'' सूत्र वाक्य कह रहा है कि नहीं-नहीं, आप भी प्राप्त कर सकते हो, क्योंकि मैंने प्राप्त किया है । कैसे किया है? ''वोच्छामि समयपाहुड मिणमो" जो समयप्राभृत नाम का शास्त्र है, श्रुतकेवली ने जैसा कहा है, वैसा मैं कहूँगा । क्यों कहूँगा ? 'गई पत्ते" | कौन-सी गति के लिए ? "सव्व सिद्धे", जो सिद्धों ने गति प्राप्त की है, उन सिद्धों की गति की प्राप्ति मुझे भी हो जाये, इसलिए मैं समयपाहुड नाम के ग्रन्थ को कहूँगा। क्योंकि इसको जाने बिना गति मिलती नहीं। कौन-सी गति ? सिद्ध गति। जिनको चार गतियाँ चाहिए हैं, वे समयसार को न जानें । जिन्हें चार गति नहीं चाहिए, सिद्ध गति चाहिए, वे समयसार को ही जानें, शेष को न जानें। सिद्ध गति चाहिए है, ध्रुवसत्य यह है । जब परमात्मा का राग सिद्धगति में बाधक है, तो आपका राग सिद्धगति का साधन किंचित भी नहीं है। निर्णय करना आज ही। भवों की बातें कई बार करते हो। सिद्ध गति का लक्ष्य है तो असिद्ध गति की बातें क्यों नहीं छोड़ते हो? क्योंकि 'सुनने-वाला' समयसार बहुत सरल है, और अनुभव 'करनेवाला' समयसार बहुत कठिन है । द्रव्य समयसार सुन/पढ़ रहे हैं । भाव समयसार तो चिद्रूप है, स्वरूप है, पररूप किंचित भी नहीं है। 'वंदित्तु'- किसका आलम्बन लेना? उसका नहीं, जो बचता नहीं है, नष्ट होता है, मिट जाता है। उसका आलम्बन ले रहा है तो कहाँ गई तेरी प्रज्ञा? छिन गई, नष्ट हो गई। जिसे पकड़ना चाहिए था, उसे पकड़ नहीं रहा है, पर्यायों को पकड़े बैठा है। कभी स्वयं की स्थूल पर्याय को पकड़ता है, कभी सम्बन्धी की पर्याय को पकड़ता है। अरे ज्ञानी ! तेरे परिणामों की पर्याय तेरे पकड़ने में नहीं आ रही है। ये पुदगल की पर्याय को क्यों पकडे बैठा है? क्यों जो सबह परिणाम थे. वे अभी वैसे ही हैं क्या ? भावों की पर्याय को तो पकड़ नहीं रहा है, चमड़ी की पर्याय को पकड़े बैठा है। अभी तत्त्व बहुत दूर है, विश्वास रखो। ये सब पर्याय के डमरू को लेकर बजा रहे हैं। किसका आलम्बन लिया है ? अध्रुव का, जिसे मिट जाना है । तो किसका आलम्बन लेना चाहिए ? ध्रुव का आलंबन लेना चाहिए। जिन्होंने परभावों से विश्रान्ति ले ली है, कैसे हैं, वे सिद्ध भगवान ? ध्रुव हैं, अचल हैं, सम्पूर्ण उपमा छोड़ दी है। क्या विशेषण, क्या उपाधियाँ । जब तक विशेषण है, तब तक विशिष्ट नहीं है। हम जिस दिन विशिष्ट हो जायेंगे, उस दिन विशेषण समाप्त हो जायेंगे । मैं न्यायाचार्य हूँ, व्याकरणाचार्य हूँ, जब तक विशेषण चल रहे हैं, तब तक विशिष्ट नहीं हो पाओगे । जो विशेषताओं से परे हो चुका है, वह विशिष्ट पुरुष अशरीरी सिद्ध भगवान् है । इस विश्व में कोई विशिष्ट पुरुष है तो वह एक ही है, उसका नाम अशरीरी सिद्ध भगवान् है । अरहंत भी विशिष्ट पुरुष नहीं हैं, क्योंकि उनके भी चार कर्म शेष हैं अभी। 'पुरुषार्थ सिद्धि उपाय' ग्रंथ में कहा है 'अस्ति पुरुश्चिदात्मा' । जो अस्ति पुरुष है, वही चिदात्मा है, जहाँ समस्त पर्याय नष्ट हो जाये, पुरुष अकेला बचे । कैसा? जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित है, वह ही विशिष्ट पुरुष है, शेष सब सामान्य एक बात बताओ, किसी का सम्मान करना उसे धर्म में डालना है, कि अधर्म में ? अधर्म में डालना है। वह जीव अपने आत्मा के ध्यान का विचार कर रहा था, परन्तु आपने टीका लगा दिया, तो आ गया मान । तूने मानकषाय में डाल दिया। किसी को संसार में लम्बे समय तक राके रखना हो तो उसको सम्मान देते रहना । वे मान-सम्मान में बने रहे, तो विशुद्धि बना नहीं पायेंगे, तो संसार में आपके साथ रहे आयेंगे। ये धन-दौलत, ये हार आत्मा का सत्कार नहीं, अभिमान है । क्योंकि इसने अभिनन्दन किया तो किसका किया ? भव का ही किया है। हे भवाभिनंदियो ! भवातीत होना है तो भव का अभिनन्दन बन्द करो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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