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________________ १६६ समय देशना - हिन्दी होगी । इसलिए शुद्धात्मानुभूति परोक्ष नहीं, प्रत्यक्ष है। आगम से दोनों सत्य हैं। सिद्धांत की भाषा में परोक्ष है और अध्यात्म की भाषा में प्रत्यक्ष है। एक प्रश्न और खड़ा है- बाह्य प्रमेय और भाव प्रमेय । ये दो समझ मे "आ जायें, तो सम्पूर्ण प्रश्न समाप्त हो जायें । बाह्यप्रमेय मिथ्यात्व होता है, कि भाव प्रमेय मिथ्यात्व होता है इसे सोचना। आगे बतायेंगे । भाव प्रमेय की अपेक्षा कोई भी ज्ञान मिथ्यात्व नहीं होता । बाह्यप्रमेय की अपेक्षा मिथ्यात्व-सम्यक्त्व होता है। अब सोचना है कि क्या मिथ्यादृष्टि भी सत्य है ? I ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ qqq आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द 'समयसार' ग्रंथ में आलोकित चर्चा कर रहे हैं। भूतार्थ दृष्टि, भूतार्थ वस्तु । वस्तु त्रैकालिक भूतार्थ ही होती है, तुम्हारी दृष्टि भूतार्थ याअभूतार्थ है। जो-जो वस्तु है, वह सत् की अपेक्षा से भूतार्थ है । जब स्वभाव का कथन करते हैं, तो वस्तु भी भूतार्थ या अभूतार्थ होती है । 'स्कन्ध स्वभाव की अपेक्षा अभूतार्थ है, 'परमाणु' भूतार्थ है । वस्तुत्व गुण की अपेक्षा से दोनों ही भूतार्थ हैं। समझ में आया ? आत्मा तो आत्मा की अपेक्षा से भूतार्थ है । संसारी आत्मा और मुक्त आत्मा जब यह दो भेद करेंगें तब संसारी आत्मा अभूतार्थ है, मुक्त आत्मा भूतार्थ है । परन्तु सत् - अपेक्षा दोनों भूतार्थ हैं। कल प्रश्न किया था भावप्रमेय, बाह्यप्रमेय । लोक में जितने पदार्थ हैं वह सब भाव प्रमेय की अपेक्षा से प्रमाण स्वरूप हैं । बाह्यप्रमेय की अपेक्षा से प्रमाण, प्रमाणाभास । भावप्रमेय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ प्रमाण स्वरूप I बाह्यप्रमेय की अपेक्षा से पदार्थ प्रमाण, प्रमाणाभास है । भावप्रमेय में विकल्प नहीं करता । यह कर है, कि पंजा है, कि पाणि है? बाह्यप्रमेय, भाव प्रमेय । भाव प्रमेय यानी ज्ञान - सामान्य, बाह्यप्रमेय और ज्ञान - विशेष । अब बाह्य में ज्ञान विशेष क्यों दे दिया ? क्योंकि बाह्य प्रमेय पदार्थों की पर्यायों की प्रमाण प्रधानता है। वह नाना रूप लेके चलता है। भावप्रमेय यानी ज्ञान - सामान्य । भावप्रमेय की अपेक्षा कुछ भी प्रमाणाभास नहीं होता। बाह्य प्रमेय की अपेक्षा प्रमाण, प्रमाणाभास होते हैं। दोनों को ग्रहण करता है। भाव प्रमेय की अपेक्षा प्रमाण ही होता है, प्रमाणाभास नहीं होता। कैसे ? ये कर (हाथ) है, ज्ञप्ति जाना । जाना है, चाहे मिथ्या हो, चाहे सम्यक् हो । चाहे साधु का हाथ हो, चाहे असाधु का हाथ हो, सामने दर्पण है, उसमें साधु का हो, तो झलकेगा, असाधु का हो तो झलकेगा ? वह तो दोनों को झलकायेगा । वह यह नहीं कहेगा कि साधु है कि असाधु । क्या झलकेगा? हाथ झलकेगा। वह हाथ झलक रहा है, वह सत्य झलक रहा है, कि असत्य ? सत्य है । दर्पण में तो हाथ है भावप्रमेय में विकल्प नहीं होता, पदार्थ होता है। मिथ्यात्व जो है वह भी सत्य है, मिथ्याज्ञान है वह भी सत्य है, प्रमाणाभास नहीं है । जो मिथ्यात्व को जान रहा है, वह किससे जान रहा है? ज्ञान से । मिथ्याज्ञान को जान रहा है, किससे ? ज्ञान से । मिथ्या चारित्र को जान रहा है, किससे ? ज्ञान से । ज्ञान में मिथ्यापना नहीं है, ज्ञान में सम्यक्पना नहीं है। ज्ञान में ज्ञप्ति क्रिया है । मिथ्यात्व भी मिथ्यात्व की अपेक्षा से सत्य है । सम्यक् भी सम्यक् की अपेक्षा से सत्य है । बाह्य प्रमेय में जब हम आते हैं, तो क्रियारूप विषय बनता है। बाह्य प्रमेय में आते है, तो सम्यक् 'श्रद्धा' का विषय बन रहा है । मिथ्यात्व 'अश्रद्धा' का विषय बन रहा है। पर जब हम ज्ञान में देखते हैं तो ज्ञान के विषय दोनों हैं, सत्य है भाव प्रमेय से । प्रमाण में आओ | सोना तो सोना है। उसी में, उस डली के आधे से कुण्डल बना लिया, आधे से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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