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________________ समय देशना - हिन्दी १४३ शुद्धशुष्क चिदानंद भाव है । जाननभाव रागभाव है कि मैं जानूँ इस समयसार में क्या लिखा है? समयसार स्वभाव नहीं है, तू समयसार को जानने का रागी है। बहुत सारा विषय मेरे मस्तिष्क में आता है, हृदय में आता है, मैं आपको बताता नहीं हूँ। यदि बता दूँगा तो आप यही कहोगे कि महाराज ! लोक में बैठे क्यों हो? एक विद्वान् ने कहा- महाराज श्री ! आप समयसार की बात करो। तो समयसार की जैसे ही बात की, उसी समय वह विद्वान् हाथ जोड़ता है 'महाराज ! व्यवहार का लोप हो जायेगा।' इतनी जल्दी घबड़ा गया। अरे ! व्यवहार का लोप होता ही नहीं है, निश्चय की प्राप्ति होती है। यदि मंजिल की प्रथम सीढ़ी पर पैर रखा है, तो सीढ़ी का लोप नहीं हो गया, तेरे लिए अगली सीढ़ी बन गई है। अभी समझ नहीं रहे निश्चय व व्यवहार वाले। निश्चय की चर्चा से व्यवहार का लोप होने लग गया, तो सत्ता का विनाश हो जायेगा। निश्चय की भाषा से व्यवहार का लोप नहीं होता है। निश्चय की भाषा से व्यवहार का जो सारभूत है, उसकी प्राप्ति होती है। क्या करूँ ? जितने वक्ता हैं, वक्तृत्व की गहराई में जाये बिना बोलकर आ जाते हैं और लोगों को भ्रमित कर देते हैं। एक कहता है कि व्यवहार की बात हो रही है, वहाँ पर नहीं जाना, अन्यथा निश्चय धर्म का लोप हो जायेगा । दूसरा कहता है कि निश्चय की बात हो रही, वहाँ मत जाना, अन्यथा व्यवहार धर्म का लोप हो जायेगा । हे ज्ञानी आत्माओ ! अभी तुमने वस्तुस्वरूप को नहीं जाना है। जो जीव है, तुम हजार आदमी को लेकर उसे जड़ कहने लग जाओ, पूरा सिद्धांत ही बना दो कि अमुक पुरुष जड़ है लेकिन कागज भर जायेंगे, ग्रन्थ लिख जायेंगे, पर विश्वास रखना, उसे तुम जड़ नहीं बना पाओगे, तुम्हारी दृष्टि जड़ में जड़ जायेगी। वह तो जैसा है, वैसा ही होता है। मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व सिद्धांत से वस्तु मिथ्या नहीं होती है । तेरा भाव मिथ्या होता है । वस्तु तो जैसी होती है, वैसी होती है । कट्टरवादी होना पड़ेगा। सिद्धांत में कट्टरता ही होती है, सिद्धांत कभी ढीला होता ही नहीं है। जड़ को जड़रूप निहारो, चैतन्य को चैतन्यरूप निहारो, परन्तु जड़ में जड़ मत जाना । चैतन्य को समझने के लिए जड़ को जानो। विषय को भूलना नहीं, मैं किस पर जोर दे रहा हूँ ? शुष्क हो जाइये। शुष्क यानी सूखापन, किंचित भी आर्द्रता नहीं। यदि सोंठ की गाँठ में गीलापन रह जायेगा, तो डिब्बे में भर दो तो सड़ जायेगी, और पूर्ण शुष्क हो जाये तो औषधी बनती है। सौंठ औषधी है, काष्ठ-वनस्पति है। पर गीली है तो अभक्ष्य है। गीली है तो अनंत संसार है, सूख जाये तो परम सिद्धशिला है। राग नीर में किंचित भी गीलापन रह जाये तो आत्मा अनंतकायों को धारण करेगा, राग से शुष्क हो जाये तो सिद्धशिला पर ही विराजेगा । ये मित्र, शत्रु, भगिनी, जनक, जननी कुछ नहीं। मैं स्वतंत्र हूँ। मेरी स्वतंत्रता का जनक न हुआ, न होगा। मेरी स्वतंत्रता की जननी आज तक न हुई है, न होगी। जितने जनक-जननी हैं, वे मिश्रधारा कर रहे हैं । स्वतंत्रधारा तो मेरी है । जितने जनकजननी हैं, वे तन को उत्पन्न करने में निमित्त तो हैं, परन्तु चेतन के उत्पन्न करने में निमित्त नहीं हैं। करने में वैराग्य हो गया, तो किससे पूछू, किससे बोलूँ ? भूल जाइये मेरा बेटा, मेरी बेटी । मैं तेरा पिता या पुत्र हूँ, भूल जाओ। कितने चले गये। राग को छोड़ो। कितने मिले थे मार्ग में, कितने छूटे थे मार्ग में, पर एक भी मिलकर रह न पाये, फिर भी यहीं बैठे हो। यही तो तेरे पाप-पुण्य का फल है, शुष्क हो रहे हो। समझ में आ रहा है ? अरे, अच्छी बात है जो इतना तो समझ में आ रहा है कि समझ में नहीं आ रहा । मैं इतना ही समझाना चाहता हूँ, कि समझ में नहीं आ रहा। इतने भव बीत गये, फिर भी समझ में नहीं आ रहा है, फिर क्यों पड़ा है ? अब समझ में आ गया । दाँत निकल गये, शरीर हिलने लग गया, इन्द्रियाँ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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