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________________ 6. अट्ठ *चदु (मूलशब्द) * णाण (मूलशब्द) *दंसण ( मूलशब्द) सामण्णं जीवलक्खणं भणियं ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं अट्ठ चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं ।। * (3T) 1/2 fa (चदु) 1/2 वि ( णाण) 1 / 2 वि (दंसण) 1/2 वि ( सामण्ण) 1 / 1 वि [ (जीव ) - ( लक्खण) 1 / 1] (भण भणिय) भूक 1 / 1 ➡ (16) Jain Education International (ववहार ) 5 / 1 (सुद्धणय) 5/1 (सुद्ध) 1 / 1 वि अव्यय ( दंसण) 1 / 1 ( णाण) 1 / 1 आठ चार ज्ञानरूप दर्शनरूप साधारण जीव का लक्षण कहा गया है For Personal & Private Use Only व्यवहार (नय) से शुद्धनय से अन्वय- ववहारा जीवलक्खणं सामण्णं अट्ठ णाण चदु दंसण भणियं सुद्धणया सुद्धं दंसणं पुण णाणं । अर्थ- व्यवहार (नय) से जीव का साधारण लक्षण आठ ज्ञानरूप और चार दर्शनरूप कहा गया है। शुद्धनय से शुद्ध दर्शन और (शुद्ध) ज्ञान ( जीव का लक्षण कहा गया है)। शुद्ध और दर्शन ज्ञान प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) द्रव्यसंग्रह www.jainelibrary.org
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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