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________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार संपादक की कलम से आचार्य नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव द्वारा रचित द्रव्यसंग्रह 11 वीं शताब्दी की कृति है। शौरसेनी प्राकृत भाषा की 58 गाथाओं में रचित यह रचना लघु होते हुए भी सारगर्भित, मौलिक और अपूर्व है। यह असंदिग्ध है कि नेमिचन्द मुनि के सम्मुख आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्य और नेमिचन्द्राचार्य रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इनका गहन अध्ययन किया और इनसे प्राप्त ज्ञान को एक सुन्दर माला में संजोकर अपने व्यक्तिगत साधना के अनुभव को इसमें जोड़कर द्रव्यसंग्रह तैयार किया। निस्सन्देह यह ग्रन्थ मोक्षमार्ग के साधकों को दृष्टि में रखकर ही लिखा गया है, किन्तु इसमें जैन अध्यात्म के सारभूत तत्त्व सम्मिलित किये गये हैं। इसमें ध्यान का विलक्षण प्रतिपादन है। निश्चय-व्यवहार की समझ वादविवाद से हल नहीं की जा सकती है। ध्यान से ही इसके भेद को हृदयंगम किया जा सकता है। निश्चय-व्यवहार को यह ग्रन्थ बहुत ही सहज रूप में साथ लेकर चला है। भावनिर्जरा में 'भुत्तरसं' की धारणा मौलिक है। इस तरह से पारंपरिक प्रतिपादन में कुछ नई आध्यात्मिक धारणाएँ इस ग्रन्थ को उच्चस्तरीय स्वीकारने के लिए बाध्य करती है। इस ग्रन्थ का पाठ करने पर पूरा जैन-धर्म-दर्शन आँखों के सामने सदैव उपस्थित रहेगा और साधक पदच्युत होने से बचेगा। लगता है इन बातों के कारण ही द्रव्यसंग्रह को कण्ठस्थ करना मुनिचर्या का हिस्सा बन गया है। ग्रन्थ की इन्हीं महत्त्वपूर्ण बातों के कारण मेरे सुझाव पर श्रीमती शकुन्तला जैन, एम. फिल. ने प्राकृत का व्याकरणिक विश्लेषण और इसका व्याकरणात्मक हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के प्रस्तुतिकरण से प्राकृत भाषा इस ग्रन्थ से सीखी जा सकेगी, ऐसी आशा है। द्रव्यसग्रह Jain Education International (1) www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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