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________________ अ०२५ बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र / ७८९ इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में भी जिनकल्प और स्थविरकल्प का विधान है, इसलिए उपर्युक्त ग्रन्थलेखक का प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करनेवाला यह हेतु कि दिगम्बरपरम्परा में जिनकल्प और स्थविरकल्प की मान्यता नहीं है, मिथ्या (स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास) सिद्ध हो जाता है। अतः उसके अ धार पर बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयग्रन्थ कहना भी मिथ्या सिद्ध हो जाता किन्तु बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को 'जिनकल्पिसूत्र' संज्ञा जिनलिंगधारी मुनिसामान्य के आचार की अपेक्षा से दी है, दूसरे शब्दों में श्वेताम्बरमान्य वस्त्रपात्रमय स्थविरकल्प के प्रतिपक्षी जिनकल्प की अपेक्षा से दी है। इसका विशेष प्रयोजन है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार एवं उत्तरवर्ती श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनगणी, हरिभद्रसूरि आदि ने उमास्वामी-कृत तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-कृति सिद्ध करने की अर्थात् उसमें स्थविरकल्प (वस्त्रपात्रधारी साधुओं के आचार) का प्रतिपादन साबित करने की चेष्टा की है। अतः बृहत्प्रभाचन्द्र ने इसका खण्डन करने के लिए उक्त तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर रचित अपने तत्त्वार्थसूत्र को जिनकल्पिसूत्र (जिनलिंगधारी मुनियों के आचार का वर्णन करनेवाला सूत्र) नाम दिया है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में दिगम्बरसाधु जिनकल्पी नाम से प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बरग्रन्थ शतपदी के कर्ता महेन्द्रसूरि ने अपने समय (विक्रम सं० १२९४) के दिगम्बर साधुओं के आचरण की आलोचना की है। उसमें उनके लिए जिनकल्पानुकारी विशेषण प्रयुक्त किया गया है। अतः उपर्युक्त दृष्टि से बृहत्प्रभाचन्द्र द्वारा अपने ग्रन्थ को 'जिनकल्पिसूत्र' नाम दिया जाना युक्तिसंगत है। उनके द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र में जिनकल्प (दिगम्बर मुनियों के आचार) का ही निरूपण है, इसकी पुष्टि के लिए सूत्रकार बृहत्प्रभाचन्द्र ने एक नये सूत्र का भी समावेश किया है, वह है 'श्रमणानामष्टाविंशतिर्मूलगुणाः' (७/५) अर्थात् श्रमणों के २८ मूलगुण होते हैं। श्रमणों के २८ मूलगुणों में एक अचेलत्व मूलगुण भी है, जो यापनीयमत में संभव नहीं है, क्योंकि उसमें अपवादरूप से वस्त्रधारण करनेवाला भी मुनि कहला सकता है और उस मत के अनुसार वह मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। स्वयं यापनीय-आचार्य शाकटायन ने अचेलत्व (नग्नत्व) को मुनि का मूलगुण मानने से इनकार किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र में दिगम्बर मुनियों के ही आचार का वर्णन है। ७. देखिये, अध्याय ८/ प्रकरण ४/ शीर्षक ३ 'पासत्थादि मुनियों के वस्त्रधारण से १२वीं शती __ई० में भट्टारकपरम्परा का उदय।' ८. देखिये, अध्याय १५/ प्रकरण १/शीर्षक २ 'यापनीय-अमान्य २८ मूलगुणों का विधान।' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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