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________________ अ० १२ / प्र० ३ कसायपाहुड / ७३७ किन्तु श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध प्रमाणों से आर्यमंक्षु और नागहस्ती का कसायपाहुड के साथ सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। क्योंकि भले ही श्वेताम्बर - परम्परा में आर्यमंग और नागहस्ती के नाम उपलब्ध हैं, तथापि न तो वे परस्पर समकालीन सिद्ध होते हैं, न यतिवृषभ के साथ उनकी कालसंगति बैठती है, जिन्हें उन दोनों का साक्षात् शिष्य माना गया है, न श्वेताम्बरसाहित्य में इस बात का उल्लेख है कि आचार्यपरम्परा से उन्होंने कसायपाहुड का अर्थग्रहण किया था, न उस आचार्यपरम्परा का कोई पदचिह्न प्राप्त होता है, न उसमें यह संकेत है कि उन्होंने यतिवृषभ को उन गाथाओं की शिक्षा दी थी और न ही उनकी कर्मसिद्धान्त - विषयक किसी विचारधारा का श्वेताम्बर साहित्य में कहीं उल्लेख मिलता है। (पं. कै. च. शास्त्री : जै. सा. इ. भा. १/ पृ.१७)। जयधवलाकार का कथन है कि यतिवृषभ ने आर्यमंक्षु और नागहस्ती दोनों के पादमूल में बैठकर गुणधरकथित गाथाओं के अर्थ का श्रवण किया था। इस कथन से इन तीनों आचार्यों की समकालीनता सिद्ध होती है । किन्तु श्वेताम्बर - स्थविरावलियों के अनुसार आर्यमंग और नागहस्ती के बीच लगभग १५० वर्ष का अन्तर है । आर्य मंगु वी० नि० सं० ४५१ से ४७० तक अर्थात् ई० पू० ७६ से ई० पू० ५७ तक आचार्यपद पर आसीन रहे तथा आर्य नागहस्ती ने ईसोत्तर ९३ के आसपास आचार्यपद ग्रहण किया, जब कि दिगम्बरसाहित्य में उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार यतिवृषभ का समय १७६ ई० के लगभग है । (देखिये, अध्याय १० / प्रकरण १ - तिलोयपण्णत्ती का रचनाकाल)। अतः आर्यमंक्षु और यतिवृषभ के बीच २३३ वर्ष का तथा नागहस्ती और यतिवृषभ के मध्य लगभग ८३ वर्ष का अंतराल फलित होता है। इससे यह बात युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होती कि आर्यमंक्षु और नागहस्ती, दोनों के पादमूल में बैठकर यतिवृषभ ने कसायपाहुड की गाथाओं का श्रवण किया था । तथा आचार्य गुणधर ई० पू० द्वितीय शती के उत्तरार्ध में हुए थे (देखिये, प्रकरण २ / शीर्षक २.१) और श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में आर्यमंगु का आचार्यकाल ई० पू० ७६ से ई० पू० ५७ तक बतलाया गया है। इस प्रकार वे आचार्य गुणधर से लगभग एक शताब्दी बाद हुए थे । तथा श्वेताम्बर - स्थविरावलियों के अनुसार आर्य नागहस्ती का समय ईसोत्तर ९३ के आसपास है। इस तरह आर्य नागहस्ती आचार्य गुणधर से लगभग दो शताब्दियों के बाद उत्पन्न हुए थे । इस महान् कालवैषम्य के कारण इन दोनों का आचार्य गुणधर से कसायपाहुड की गाथाओं का श्रवण उपपन्न नहीं होता । यदि थोड़ी देर के लिए गुणधर, आर्यमंक्षु, नागहस्ती और यतिवृषभ की कालसंगति भी मान ली जाय, तो भी यह सिद्ध नहीं होता कि श्वेताम्बरपरम्परा के आर्यमंगु और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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