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________________ अ०११/प्र०७ षट्खण्डागम / ६८७ पर, ऐसा किसी भी दिगम्बर आचार्य या विद्वान् ने नहीं किया। पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धिटीका में षट्खण्डागम का प्रचुर अनुसरण किया। 'मणुसिणी' शब्द का अनुकरण कर भावमानुषी में क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन किया। अकलंकदेव ने सूत्र ९२-९३ का ज्यों का त्यों संस्कृतरूपान्तरण कर द्रव्यमानुषियों और भावमानुषियों में यथायोग्य गुणस्थान निरूपित किये। नेमिचन्द्राचार्य ने तो षट्खण्डागम के आधार पर ही गोम्मटसार नामक महान् ग्रन्थ की रचना की और वीरसेन स्वामी ने उस पर बृहद् धवलाटीका का प्रणयन किया, पर किसी को भी 'संजद' शब्द दिगम्बर-सिद्धान्तविरोधी प्रतीत नहीं हुआ। इसलिए किसी ने भी उसमें हाथ लगाने की चेष्टा नहीं की। सबने उन सूत्रों को दिगम्बरमतानुरूप ही पाया और तदनुरूप ही व्याख्या की। षट्खण्डागम के सम्पादक विद्वानों ने भी ९३वें सूत्र और उसकी धवलाटीका पर गहन-विचार-विमर्श किया, मूडबिद्री की अन्य प्रतियों से मिलान किया, 'संजद'पद-समर्थक विद्वानों ने 'संजद'-पद-विरोधी विद्वानों के साथ लम्बा शास्त्रार्थ किया। इस प्रकार सब तरह से ठोक-बजाकर सूत्र में 'संजद' पद का औचित्य सिद्ध किया। यदि 'संजद'-पद दिगम्बरत्व-विरोधी होता, तो क्या ये विद्वान् उसे सूत्र में रखने के लिए इतनी उठापटक, इतना अनुसन्धान, इतना विचार-विमर्श करते? वस्तुतः सूत्र में 'संजद'-पद का होना दिगम्बर मान्यताओं की संगति के लिए आवश्यक था, इसीलिए विद्वानों ने उसे सूत्र में जोड़ने का आग्रह किया और जोड़ दिया। __ इस तरह दिगम्बरजैन विद्वानों ने सूत्र में 'संजद'-पद किसी मजबूरी के कारण नहीं जोड़ा, जिससे यह कहा जाय कि उसे जोड़ने के बाद उन्होंने यह मानकर सन्तोष कर लिया कि उसका प्रयोग भावस्त्री के अर्थ में किया गया है। भावस्त्री के अर्थ में तो वह है ही। इसीलिए संजद-पद-समर्थक विद्वद्वर्ग उसे सूत्र में रखे जाने का आग्रह कर रहा था। इसके लिए उनके पास सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, गोम्मटसार, धवल टीका आदि ग्रन्थों के प्रमाण भी थे। हाँ, सन्तोष इस बात का अवश्य हुआ होगा कि उन्होंने एक सही काम किया। सूत्र में 'संजद' पद रखना सिद्धान्त की दृष्टि से कितना आवश्यक था, इस बात का पता विद्वानों के निम्नलिखित वक्तव्यों से चलता 'संजद' पद होने के पक्ष में व्याकरणाचार्य जी का तर्क पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य ९३वें सूत्र में 'संजद' पद की अनिवार्य आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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